Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 228
________________ २१० ] जैन-अंगमान्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास श्रमण-जीवन को विचारधारा शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति चरम लक्ष्य है-श्रमण-जीवन का एक मात्र उद्देश्य अपनी आत्मा की सर्वोच्च उन्नति करना है, अत. श्रमण सर्वदा आत्मा का चिन्तन करता रहता है । अंगशास्त्र में जहाँ कहीं भी श्रमण-जीवन का वर्णन है वहाँ यह अवश्य लिखा है कि, "वह आत्मा का विचार करता हुआ विहार करने लगा।"१ आत्म-तत्त्व की उन्नति के लिए श्रमण को उसकी विकृत एवं प्रकृत दोनो अवस्थाओ पर विचार करना पड़ता है। आत्मा क्रोधादि कपायोसे अभिभूत होने के कारण विकृत होता है। ऐसा विकृत आत्मा शत्रु के समान माना गया है । महावीर ने कहा था कि, "हे बन्धु, अपने साथ ही युद्ध कर, वाह्य युद्ध करने से क्या लाभ होगा ?"' जो श्रमण आत्मा की इस विकृति पर संयम एवं तप के द्वारा पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है, उसका आत्मा उसका मित्र हो जाता है। आचाराग मे कहा गया है कि, "हे पुरुप तू ही तेरा मित्र है, वाहर के मित्र को क्यो ढढ़ता है ?" तू अपनी आत्मा को निग्रह मे रख और इस प्रकार तू दुख से मुक्त हो जावेगा। अहिंसा चरमलक्ष्य की प्राप्ति का साधन है-यदि वास्तव मे देखा जाए तो श्रमण-जीवन एक अहिसा का जीवन है । श्रमण की प्रत्येक क्रिया तथा विचार अहिंसा की भावना से ओत-प्रोत रहता है। श्रमण के पचमहाव्रतो मे प्रथम स्थान अहिसा का है । सत्य और अचौर्य मे अहिंसा की ही भावना व्याप्त है । बह्मचर्य एवं परिग्रह-त्याग इसी के ही रूप है । अहिसा की पूर्ण साधना के लिए श्रमण अनगार वनता है।५ महावीर ने कहा था कि, “मनुष्य दूसरे जीवी के प्रति असावधान न रहे, १. "अप्पाण भावेमाणे विहरइ" नायाधम्मकहाओ, १, ४, १, ३२, १, ३५ । आचाराग (हि०) १, ५, १५४, पृ० ३३ । तुलना, "आत्मैव हह्यात्मनो वन्धुरात्मैव रिपुरात्मन , गीता ६, ५। आचाराग, (हि०) १, ३, ११७, ११८, पृ० २३ । "विविध कर्मरूपी हिंसा की प्रवृत्तियाँ मे नही करूँ, इस भाव से उद्यत हुआ, बुद्धिमान' अनगार कहा है।" आचाराग (हि०) १, १,३६, ६१ पृ० ८। ५

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