Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 211
________________ षष्ठ अध्याय · श्रमण-जीवन [ १६३ महाव्रत-हिसादि पाच पापो से सम्पूर्ण विरत होना महाव्रत है। उसके पाच भेद तथा २५ भावनाए है। महाव्रत के पाच भेद इस प्रकार है-१. सर्वप्राणातिपातविरमण २ सर्वमृषावादविरमण ३. सर्वअदत्तादानविरमण ४ सर्वमैथुनविरमण ५ सर्वपरिग्रहविरमण । १ सर्वप्राणातिपातविरमण-समस्त जीवो की हिंसा का जीवनपर्यन्त त्याग करना सर्वप्राणातिपातविरमण है। इस व्रत का धारक श्रमण मन वचन तथा काया से किसी प्राणी की हिसा न स्वयं करता है न दूसरो से कगता है और न हिसा-कार्य में किसी प्रकार का अनुमोदन ही करता है । इस व्रत के निर्दोपपालन के लिए वह सावधानी से गमन करता है, मन, वचन तथा काया के प्रयोग मे बहुत सावधान रहता है और आहार-पानी को अच्छी तरह देखभाल कर ग्रहण करता है ।२ सर्वमृषावादविरमण-असत्य तथा पीड़ाकारी वचनो के प्रयोग का जीवन-पर्यन्त त्याग करना सर्वमृषावादविरमण है । इस व्रत का धारक श्रमण मन, वचन तया काया से न स्वयं असत्य वोलता है, न किसी अन्य से बुलवाता है और न असत्यवचनो का किसी प्रकार से अनुमोदन करता है । इस व्रत के निर्दोप पालन के लिए श्रमण बोलने से पहिले वहुत अच्छी तरह विचार कर लेता है; क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य के वश वोलने का भी त्याग कर देता है, क्योकि इनमे से किसी एक के भी वश हो कर असत्य बोलना संभव है।' ___ सर्वअदत्तादानविरमण–विना दी हुई वस्तु के ग्रहण का जीवनपर्यन्त त्याग करना सर्वअदत्तादानविरमण है । इस व्रत का धारक श्रमण मन, वचन तथा काया से विना दी हुई वस्तु को न स्वय ग्रहण करता है, न दूसरो को ग्रहण करवाता है और न इस कार्य में किसी भी प्रकार की अनुमोदना ही करता है । इस व्रत के निर्दोष पालन के लिए वह भिक्षा मे प्राप्त भोजन आचार्य को दिखा कर सेवन करता है; जीवनो १ समवायाग २५ । २ आचाराग २, १५ (१) पृ० २०३ । ३. वही २, १५ (२) पृ २०४-२०५ ।

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