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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
ब्राह्मण-"वह ब्राह्मण इसलिए कहलाता है कि वह राग-दृप, कलह, झूठी निन्दा, चुगली, आक्षेप, संयम मे अरति, विषयो मे रति, मायाचार और झूठ आदि सब पापकर्मों से रहित होता है, सम्यक प्रवृत्ति से युक्त होता है, सदा यत्नशील होता है, अपने कल्याण में तत्पर होता है, तथा कभी क्रोध अथवा अभिमान नहीं करता।"१
श्रमण-"वह श्रमण इसलिए कहलाता है कि वह विद्वानों से नही हारता और सव प्रकार की आकाक्षा से रहित होता है। वह परिग्रह, हिसा, झूठ, मैथुन क्रोध, मान, माया, लोभ, राग तथा दू परूपी पाप से विरत होता है।"
भिक्ष -"वह भिक्ष इसलिए कहलाता है कि वह अभिमान से रहित नम्र होता है और गुरु का आज्ञानुवर्ती होता है । वह विविध प्रकार के कष्टो तथा विघ्नो से नही हारता । अध्यात्मयोग से वह अपना अन्त - करण शुद्ध करता है। वह प्रयत्नशील, स्थिरचित्त और दूसरो द्वारा भिक्षा के रूप मे दिए हुए भोजन की मर्यादा मे रह कर जीवन-निर्वाह करने वाला होता है ।"3
निग्रंथ-"वह निथ इसलिए कहलाता है कि वह अकेला (संन्यासी) होता है, एक को जानने वाला (मोक्ष अथवा धर्म को) होता है, जागृत होता है, पापकर्मो के प्रवाह को रोकने वाला होता है, सुसंयत होता है, सम्यकप्रवृत्ति से युक्त होता है आत्मतत्त्व को समझने वाला होता है, विद्वान् होता है, इन्द्रियो के विषयो से विरक्त होता है, पूजा, सत्कार और लाभ की इच्छा से रहित होता है, धर्मार्थी होता है, धर्मज्ञ होता है, मोक्षपरायण होता है तथा समतापर्वक आचरण करने वाला होता है।"४ श्रमण-अवस्था का महत्त्व ___ जैनधर्म मे श्रमण का पद बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है । आध्यात्मिक विकास के क्रम मे उसका स्थान छठा है। यदि यहाँ से वह
१ सूत्रकृतांग (हि.), १, १६, १, पृ० ६७ । २ वही १,१६, २, पृ० ६७ । ३. वही १, १६, ३, पृ० ६८ । ४. वही १, १६, ४, पृ० ६८ ।