Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
View full book text
________________
षष्ठ अध्याय श्रमण-जीवन
[-१८३
शब्द तुल्यार्थक है। अत जो सब जीवो के प्रति सम अर्थात् समान अरगति अर्थात् प्रवृत्ति करता है वह श्रमण कहलाता है।
दशवकालिक सूत्र मे श्रमण का अर्थ तपस्वी किया गया है "जो अपने ही श्रम से-तप साधना से मुक्तिलाभ करते है, वेश्रमण कहलाते है।" आचार्य शीलाक भी सूत्रकृताग मे श्रमण शब्द की यही "श्रम" और "सम" सम्वन्धी व्याख्या करते है ।२
बुद्ध ने भी श्रमणशब्द के अर्थ पर कुछ प्रकाश डाला है-'जो व्रतहीन है, मिथ्याभाषी है, इच्छा तथा लोभ से भरे हुए है। ऐसे व्यक्ति मुण्डित हो कर भी क्या श्रमण बनेगे? जो छोटे-बड़े पाप का शमन करता है, उसे पापो का शमनकर्ता होने के कारण श्रमण कहते है ।"3 ___ महावीर ने भी यही कहा है कि-'केवल मुण्डित होने मात्र से भी कोई श्रमण नहीं होता, श्रमरण होता है-समता की साधना से।४
समानार्थक शब्द-वैसे तो श्रमण शब्द के समानार्थक अनेक शब्दो का प्रयोग अंगशास्त्र मे हुआ है। फिर भी हम कुछ मुख्य शब्दो की व्याख्या यहाँ करते है। ___ मुनि-जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा समस्त त्रस जीवों के हिसारूप 'कर्मसमारम्भ' को अच्छी तरह जान कर उसका त्याग कर देता है, वह मुनि कहलाता है।
अनगार-समस्त प्राणियो के रक्षणरूप संयम का पालन करने वाला, सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान तथा, सम्यकचारित्ररूप मोक्षमार्ग मे प्रवृत्त और माया का त्याग करने वाला अनगार कहलाता है।६
१. "श्राम्यन्तीति श्रमणा , तपस्यन्तीत्यर्थः" दशवकालिकसूत्रवृत्ति, १, ३, २. "श्राम्यति तपसा खिद्यते इति कृत्वा श्रमणो वाच्य अथवा समं तुल्यं
मित्रादिषु मन:-अन्त करण यस्य स सममन., सर्वत्र वासी-चन्दनकल्पइत्यर्थः" सूत्रकृताग, १. १६ (हिन्दी टीका, पृ० २६८, २६९) धम्मपद, धम्मवग्ग, ६, १० । उत्तराध्ययन, २५, ३१,३२।
आचारांग, १, १, १ ७ (जैनसूत्राज् भाग १ पृ० १, १५) ६. वही, १, १, ३, १, भाग १ पृ० ५।

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275