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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास का हेतु और दीप्ति का निमित्त हो वह तैजस शरीर है । क्षण-प्रतिक्षण ग्रहण किया जाने वाला कर्म का समूह ही कार्माण गरीर कहलाता है।
तैजस तथा कार्माण गरीर प्रत्येक ससारी जीव के होते है। औदारिक गरीर केवल देव तथा नारकियो के होता है। आहारक गरीर का निर्माण कोई विशेष ऋद्धिधारी मुनि ही कर सकते है। जव कभी चतुर्दगपूर्वपाठी मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में सदेह हो जाता है और जव सर्वज्ञ का सन्निधान नही होता, तव वे अपना सदेह-निवारण करने के लिए औदारिक शरीर से क्षेत्रातर मे जाना असभव समझ कर अपनी विशिष्ट द्धि का प्रयोग करते हुए जो हस्तप्रमाण छोटा गरीर निर्माण करते है, वह आहारक गरीर कहलाता है । १ ।
जन्म-समूच्र्छन, गर्भ तथा उपपात के भेद से जन्म तीन प्रकार का है । जरायुज, अण्डज तथा पोतज प्राणियो के गर्भ जन्म होता है । जरायु अर्थात् गर्भवेष्टन के साथ जो प्राणी उत्पन्न होते है वे जरायुज कहलाते हैं, जैसे मनुष्य, गाय आदि । अण्डे से पैदा होने वाले जीव अण्डज कहलाते है , जैसे साप, मोर, चिडिया आदि । जो किसी प्रकार के आवरण से वेष्टित न होकर ही पैदा होते है वे जीव पोतज कहलाते है, जैसे हाथी, गगक, नेवला, चूहा आदि।
स्वर्ग तथा नरक मे देव तथा नारकियो के जन्म के लिए नियत स्थान-विशेष उपपात कहा जाता है। देव तथा नारकियो के उपपात जन्म होता है क्योकि वे उपपात-क्षेत्र मे स्थित वैक्रिय-पुद्गलो को शरीर के लिए ग्रहण करते है। इन दो जन्मो से अतिरिक्त जन्म वाले समस्त प्राणियो का जन्म समूर्छन जन्म कहलाता है ।२ __ भाव-आत्मा के सभी पर्याय किसी एक ही अवस्था वाले नही पाए जाते । कुछ पर्याय किसी एक अवस्था मे है तो दूसरे कुछ पर्याय किसी दूसरी अवस्था मे। पर्यायो की वे भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ भाव कहलाती है । आत्मा के पर्याय अधिक से अधिक पॉच भाव वाले हो सकते है । वे पाँच भाव निम्न प्रकार है-१ औपश मिक, २ क्षायिक, ३ क्षायोपशमिक, ४ औदयिक, ५ पारिणामिक । ___ औपगमिक भाव वह है जो कर्म के उपशम से पैदा होता है। उपगम एक प्रकार की आत्मशुद्धि है, जो कर्म का उदय विलकुल रुक जाने
१ समवायाग, १५२ २ स्थानाग, ८५, ५४३