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तृतीय अध्याय जैन-तत्त्वज्ञान
[ ६५ ___ एवंभूत नय-यह नय, पदार्थ जिस समय जिस क्रिया में परिणत हो उस समय उसी क्रिया से निष्पन्न शव्द की प्रवृत्ति स्वीकार करता है । जैसे कोई मनुष्य पूजा करते समय ही "पुजारी" कहा जा सकता है, अन्य समय नहीं।'
२. अजीव-जिस पदार्थ मे जान-दर्शनरून चैतन्य नही पाया जाए उसे अजीव कहते है । यह जीव का विरोधी भावात्मक पदार्थ है । इसके पाँच भेद है-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाग तथा काल ।
पुद्गल-जिस पदार्थ मे स्पर्ग, रस, गध, रूप तथा गन्द पाया जाए उसे पुद्गल कहते है।
स्पर्ग के ८ भेद है-१ कर्कश, २ मृदु, ३ गुरु, ४ लघु, ५ गीत, ६ उष्ण, ७ स्निग्ध तथा ८ रुक्ष ।
रस के पाँच भेद है-१. तिक्त, २ कटु, ३ कपाय, ४. अम्ल, तथा ५ मधुर।
गध के दो भेद है-सुगध तथा दुर्गन्ध ।
रूप के चौदह भेद है-१ सुरूप, २ दूरूप, ३ दीर्घ, ४ ह्रस्व, ५. वृत्त ६ व्यस्र, ७ चतुरस्त्र, ८ पृथुल, परिमण्डल, १० वृष्ण, ११ नील, १२ लोहित, १३ हारिद्र, तथा १४ शुक्ल ।
गव्द के दो भेद है-शुभ तथा अशुभ।२
इन्द्रियो के द्वारा हम जो कुछ देखते हैं, सूघते है, छूते है, चखते है, और सुनते है, वह सब पुद्गल द्रव्य की पर्याय है। पुद्गल के दो भेद है-- अणु तथा स्कन्ध । पुद्गल का सबसे छोटा हिस्सा अणु है तथा एक अणु मे एक से लेकर अधिक अणुओ के मिलने से स्कन्ध बनता है।
धर्म तथा अधर्म-धर्म तथा अधर्म से पुण्य तथा पाप का अभिप्राय नहीं है । किन्तु ये दोनो भी जीव तथा पुद्गल की तरह स्वतत्र पदार्थ है। जो, जीव तथा पुद्गलो के चलने एव ठहरने में सहायक होते है वे क्रमश धर्म तथा अधर्म द्रव्य कहे जाते है। यद्यपि चलने
१ स्थानाग, ५५२, (अभयदेव-वृत्ति, ३७०-३७१) २ स्थानाग, ४७ ३ वही, ४४२