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जैन श्रागम साहित्य में भारतीय समाज
अनेक स्थानों पर आमूल परिवर्तन हो गया, उनकी विषयवस्तु' और उनके परिमाण में ह्रास हो गया । कितनों के तो नाम ही संदेहास्पद बन गये और आगमों की संख्या बढ़ते-बढ़ते ८४ तक पहुँच गयी । आगमों की प्रामाणिकता
ऐसी हालत में यह निर्विवाद है कि वर्तमान रूप में उपलब्ध जैन आगमों को सर्वथा प्रामाणिक रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता; लेकिन उन्हें अप्रामाणिक भी नहीं माना जा सकता। इस fare साहित्य में अनेक ऐतिहासिक और अर्ध- ऐतिहासिक परम्पराएँ सङ्कलित हैं जिनसे जैन सङ्घ के ऐतिहासिक विकासक्रम पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । जैन आचार्यों ने इन सब परम्पराओं को ज्यों की त्यों सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया, इनमें इच्छानुसार परिवर्तन नहीं कर डाला, इससे भी आगम- साहित्य की प्रामाणिकता पर प्रकाश पड़ता है | कनिष्क राजा के समकालीन मथुरा में पाये गये जैन शिलालेख इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इन शिलालेखों में ' कल्पसूत्र में उल्लिखित जैन श्रमणों की स्थविरावलि के भिन्न-भिन्न गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख मिलता है, इससे निस्सन्देह जैन आगमों की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वस्तुतः आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशोथ, व्यवहार, बृहत्कल्पसूत्र आदि आगमों में जो भाषा और विषयवस्तु का रूप दिखाई पड़ता है वह काफी प्राचीन है, जिसको तुलना डाक्टर विण्टरनीज के शब्दों में, भारत के प्राचीन 'श्रमण काव्य' से की जा सकती है। दुर्भाग्य से आगमों के जैसे चाहिये वैसे प्रामाणिक संस्करण अभी तक प्रकाशित नहीं हुए, ऐसी हालत में जैन भण्डारों को हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों
१. आचारांग आदि श्रागमों की विषयवस्तु के लिए देखिये समवायांगटीका -१३६, पृ० ६६-१२३; नन्दीसूत्रटीका पृ० ६६ - १०८ । नन्दी ( पृ० १०४) में ज्ञातृधर्मकथा के सम्बन्ध में कहा है- प्रकटार्थम् इत्येवं गुरवो व्याचक्षते, अन्ये पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनर्वयं प्रतिगम्भीरत्वात् नावगच्छामः, परमार्थं विशिष्टश्रुतविदो विदंति इत्यलं प्रसंगेन । श्रागमसूत्रों की | पदसंख्या में भी बहुत हानि-वृद्धि हो गयी है । व्याख्याप्रज्ञप्ति की पदसंख्या समवायांग के अनुसार ८४,०००, नन्दी के अनुसार २८८,०००, र अभयदेव के अनुसार ४००,००० होनी चाहिये ।