Book Title: Jain 40 Vratha katha Sangraha
Author(s): Dipchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 13
________________ 4] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** इन असंख्यात द्वीप समुद्रोंके मध्यमें थालीके आकार गोल एक लाख महायोजन* व्यासवाला जम्बूद्वीप है। इसके आस पास लवण समुद्र, फिर घातकी खण्डद्वीप, फिर कालोदधि समुद्र और फिर पुष्कर द्वीपके बीचोंबीच एक गोल भीतके आकारवाले पर्वतसे (जिसे मानुषोत्तर पर्वत कहते है) दो भागोंमें बटा हुआ है। इस पर्वतके उस ओर मनुष्य नहीं जा सकता है। इस प्रकार जम्बू, घातकी और पुष्कर आघा (ढाईद्वीप) और लवण तथा कालोदधि ये दो समुद्र मिलकर 45 लाख महायोजन* व्यासवाला क्षेत्र मनुष्यलोक कहलाता है और इतने क्षेत्रसे मनुष्य रत्नत्रयको धारण करके मोक्ष प्राप्त कर सकते है। . जीव कर्मसे मुक्त होने पर अपनी स्वाभाविक गतिके अनुसार ऊर्ध्वगमन करते है इसलिए जितने क्षेत्रसे जीव मोक्ष प्राप्त करके ऊर्ध्वगमन करके लोक-शिखरके अन्तमें जाकर धर्म द्रव्यका आगे अभाव होनेके कारण अधर्म द्रव्यकी सहायतासे ठहर जाते हैं उतने (लोकके अन्तवाले) क्षेत्रको “सिद्धक्षेत्र" कहते हैं। इस प्रकार सिद्धक्षेत्र भी पैतालीस लाख योजनका ही ठहरा। इस ढाईद्वीपमें पांच मेरु और तीन संबंधी वीस विदेह तथा पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रोंमेंसे जीव रत्नत्रयसे कर्म नाश कर सकते है। इसके सिवाय और कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहां भोगभूमि (युगलियों) की रीति प्रचलित है। अर्थात् वहांके जीव मनुष्यादि, अपनी सम्पूर्ण आयु विषयभोगों ही में बिताया करते है। वे भोगभूमियां उत्तम, मध्यम और जघन्य 3 प्रकारकी होती हैं, और इनकी क्रमसे तीन, दो और एक पल्यकी बड़ी * महायोजन-चार हजार मीलका होता है।

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