Book Title: Jain 40 Vratha katha Sangraha
Author(s): Dipchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 11
________________ 2] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** देवोका निवास हैं। स्वर्गाके नीचे मध्यलोकके ऊर्ध्व भाग सूर्य चन्द्रमादि ज्योतिषी देवोंका निवास हैं (इन्हींके चलने अर्थात् नित्य सुदर्शन आदि मेरुओंकी प्रदक्षिणा देनेसे दिन, रात और ऋतुओंका भेद अर्थात् कालका विभाग होता है।) फिर नीचेके भागमें पृथ्वी पर मनुष्य त्रिर्यंच पशु और व्यन्तर जातिके देवोंका निवास है। मध्यलोकसे नीचे अधोलोक (पाताल लोक) हैं। इस पाताल लोकके ऊपरी कुछ भागमें व्यन्तर और भवनवासी देव रहते है और शेष भागमें नारकी जीवोंका निवास है। ऊर्ध्व लोकवासी देव इन्द्रादि तथा मध्य व पातालवासी (चारों प्रकारके) इन्द्रादि देव तो अपने पूर्व संचित पुण्यके उदयजनित फलको प्राप्त हुए इन्द्रिय विषयोंमें निमग्न रहते हैं, अथवा अपनेसे बडे ऋद्धिधारी इन्द्रादि देवोंकी विभूति व ऐश्वर्यको देखकर सहन न कर सकनेके कारण आर्तध्यान (मानसिक दुःखोंमें) निमग्न रहते हैं, और इस प्रकार वे अपनी आयु पूर्ण कर वहांसे चयकर मनुष्य व त्रिर्यंच गतिमें अपने अपने कर्मानुसार उत्पन्न होते हैं। . इसी प्रकार पातालवासी नारकी जीव भी निरंतर पापके उदयसे परस्पर मारण, ताडन, छेदन, वध बन्धनादि नाना प्रकारके दुःखोंको भोगते हुए अत्यन्त आर्त व रौद्रध्यानसे आयु पूर्ण करते मरते हैं और स्व स्व कर्मानुसार मनुष्य व त्रिर्यंच गतिको प्राप्त करते हैं। तात्पर्य-ये दोनों (देव तथा नरक) गतियां ऐसी हैं कि इनमेंसे विना आयु पूर्ण हुए न तो निकल सकते हैं और न यहांसे सीधे मोक्ष ही प्राप्त कर सकते है, क्योंकि इन दोनों

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