Book Title: Jain 40 Vratha katha Sangraha
Author(s): Dipchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 10
________________ // ॐ नमः सिद्धेभ्यः॥ श्री जैनव्रत-कथासंग्रह) .. पीठिका।* प्रणमि देव अर्हन्तको, गुरु निर्ग्रन्थ मनाय। नमि जिनवाणी व्रत कथा, कहूँ स्वपर सुखदाय॥ अनन्तानन्त आकाश (लोकाकाश) के ठीक मध्यभागमें 343 धन राजू प्रमाण क्षेत्रफलयाला अनादि निधन यह पुरुषाकार लोकाकाश है जो कि तीन प्रकारके वातवलयों अर्थात् 'वायु (घनोदधि धन और तनुवातवलय) से घिरा हुआ अपने ही आधार आप स्थित हैं। . ____ यह लोकाकाश उर्ध्व, मध्य और अधोलोक, इस प्रकार तीन भागोंमें बंटा हुआ हैं। इस (लोकाकाश) के बीचोंबीच 14 राजू ऊंची और 1 राजू चौडी लम्बी चौकोर स्तंभवत एक त्रस नाडी हैं। अर्थात् इसके बाहर त्रस जीव (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय जीव) नहीं रहते हैं। परंतु एकेन्द्रिय जीव स्थावर निगोद तो समस्त लोकाकाशमें त्रस नाडी और उससे बाहर भी वातवलयों पर्यन्त रहते हैं। इस त्रस नाडीके उर्ध्व भागमें सबसे उपर तनुवातवलयके अंतमें समस्त 'कार्योसे रहित अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्यादि' अनन्त गुणोंके धारी अपनीर अवगाहनाको लिये हुवे अनंत सिद्ध भगवान विराजमान हैं। उससे नीचे अहमिन्द्रोंका निवास है, और फिर सोलह स्वर्गाके यह पीठिका आदिसे अन्त तक प्रत्येक कथाके प्रारंभमें पढना चाहिये। और इसके पढनेके पश्चात् ही कथाका प्रारंभ करना चहिये।

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