Book Title: Hindi ke Mahakavyo me chitrit Bhagavana Mahavira
Author(s): Sushma Gunvant Rote
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ गणधरादि का उल्लेख निम्न रूप में हैं-बर्द्धपानस्वामिगल तीर्थयति से गौतमरगणधर राग-पूर्व, पृष्ट 364-8710)" "भीनमाल में 1277 ई. का एक स्तम्भ लेख जयकुप झील के उत्तरी किनारे पर है। इसमें महावीर के श्रीमाल नगर में आने का उल्लेख है। इस लेख को कायस्थों के नैगमकुल के वाहिका राजाध्यक्ष श्री सुभट आदि ने महावीर की वार्पिक पूजा व रथयात्रा के प्रसंग में उत्कीर्ण कराया था। इस प्रकार भगवान महावीर की ऐतिहासिकता एवं उसके चरित के प्रामाणिक अध्ययन में शिलालेखों से सहायता प्राप्त होती है। मूर्तिलेखों में भगवान महावीर भारतीय संस्कृति में मूर्ति को कलाकृति के रूप में नहीं, बल्कि देवता के रूप में मान्यता प्राप्त रही है। 'प्रतीक' ऐतिहासिक अन्वेषण में भी सहायक है। प्राचीन मूर्तियाँ और उनके अवशेष प्रमाणित करते हैं कि मांगलिक प्रतीकों की परम्परा जैन, वैदिक और बौद्ध धर्म में प्राचीन काल से रही है। ___"जैन आम्नाय के अनुसार जैनदर्शन में मूर्तिपूजा का तात्पर्य उस व्यक्तिपूजा से नहीं, जो सामान्य अर्थ में प्रचलित है, बल्कि किसी भी मुक्त आत्मा की उस गुणराशि की पूजा से है, जिसका तीर्थकर-मूर्ति की पूजा के रूप में कोई पूजक अनुस्मरण करता है। भगवान तीर्थंकर की मूर्ति-पाषाणप्रतिमा अपने अतीत का अस्तित्व सुरक्षित रखती है। भगवान महावीर की प्रतिमा-मूर्ति देखने से सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का भाव झलकने लगता है । चरित ही स्वयं उनकी मूर्तियों से प्रस्फुटित होता है। डा. कुमुदगिरि 'जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन' शोध प्रबन्ध में लिखती हैं-"सर्वप्रथम मथुरा में कुषाण काल में महावीर की स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ, जिनमें किसी चिह्न या लांछन के स्थान पर पीटिका लेखों में दिये गये 'बर्द्धमान' और 'महावीर' के नामों के आधार पर तीर्थकर की पहचान की गयी। महावीर के सिंह लांछन का अंकन लगभग छठी शती ई. में प्रारम्भ हुआ, जिसका प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण वाराणसी से प्राप्त और भारत कलाभवन वाराणसी (क्र. 161) में सुरक्षित है। महावीर के यक्ष-यक्षी मातंग एवं सिद्धायिका हैं। महावीर की मूर्तियों में लगभग नौवीं शती ई. से यक्ष-यक्षी का अंकन प्रारम्भ हुआ, जिनके सर्वाधिक ज्दाहरण उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश स्थित मथुरा, देवगढ़, ग्यारसपुर एवं खजुराहो से मिले हैं। उक्त कथन से महावीर के जीवनवृत्त के प्राचीन तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है। १. अहिंसा त्राणी, अप्रैल-मई 19, पृ. 1140. 2. ट गजेटियर फ़ियथई प्रेसीडेन्सी भाग 1, खण्ड 1. पृ. 480. 3. पवनकुनार जैन : जैन कता में व्रतीक, पृ. I. १. डॉ. कुसुदगिरि : जैन महापुराण : कालापरक अध्ययन, पृ. 106. भगवान महावीर की जीवनी के स्रोत :: 15

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