Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ है। राजुल के त्याग पर पाठक के नेत्रों से सहानुभूति की अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है तथा उसके आदर्श सतीत्व एवं वैराग्य को देखकर जन-जन के मन में उसके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। मृत्यु के समय श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से जो अन्तिम उद्गार निकलते हैं, उनसे उनकी महिमा बहुत ही ऊँची उठ जाती है, जिसे तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ हो, जो स्वभाव से तो परमात्मा स्वरूप है ही, किन्तु पर्याय में परमात्मा बनने की, भगवान बनने की तैयारी कर ली हो, उसके परिणामों में जो समता होनी चाहिये वह श्रीकृष्ण के भावों में अन्त तक रही है। इसप्रकार इस महाकाव्य में साहित्यिक सुषमा यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी हुई है; परन्तु मैंने इस हरिवंश कथा में अध्यात्म के रसिकों और साहित्यिकता में कम रुचिवंत पाठकों को ध्यान में रखकर ग्रन्थ के नैतिक, तात्त्विक, धार्मिक विषयों एवं चरित्रों को तो लगभग पूरा लिया है, परन्तु काव्यशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जानेवाले अति विस्तृत लम्बी-लम्बी प्राकृतिक सौन्दर्य की छटाओं, बड़ी-बड़ी उपमाओं, रूपकों और विस्तृत श्रृंगारिक विषयों को कम किया है; क्योंकि विस्तृत रुचिवालों के लिए मूलग्रन्थ है ही, संक्षिप्त रुचिवाले पाठकों को भी सीधे-सरल तरीके से प्रथमानुयोग के रहस्य का ज्ञान हो, एतदर्थ आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी के आठवें अधिकार के निर्देशों को ध्यान में रखकर लिखने का प्रयास किया है; अत: पाठक और समालोचक इस हरिवंश कथा का अध्ययन और समीक्षा इसी दृष्टिकोण से करेंगे तो ही इसका पूरा लाभ होगा। प्रसंगानुसार जैनदर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों को भी यथास्थान भरपूर लिखने का मेरा प्रयास रहा हैउसमें मैं कितना सफल हुआ हूँ, इसका निर्णय मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। इसकी भाषा-शैली भी अत्यन्त सरल-सुगम और सीधी-सादी बनाने का प्रयत्न बुद्धिपूर्वक किया है तथा मूल ग्रन्थ को आधार बना उनके पावन चरित्रों द्वारा जैनदर्शन और भारतीयदर्शन के आदर्शों को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। बम 444

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 297