Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ जिसमें अव्युत्पन्न/अज्ञानी ( मिथ्यादृष्टि जीवों) को तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि ६३ शलाका महापुरुषों के | चरित्रों के माध्यम से अध्यात्म और आचरण की शिक्षा दी जाती है, उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। प्रथमानुयोग रि | में कथानक के साथ-साथ संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल एवं महन्त पुरुषों की प्रेरणाप्रद प्रवृत्तियों के निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया जाता है। जो जीव अल्पबुद्धि होते हैं, वे भी इन सबसे प्रेरणा पाकर धर्मसन्मुख होते हैं; क्योंकि अल्पबुद्धि सूक्ष्म निरूपण को तो समझ नहीं सकते, किन्तु लौकिक कथाओं को शीघ्र समझ लेते हैं, उनकी रुचि का विषय होने से उनका उपयोग भी इसमें विशेष लग जाता है। लौकिक कथा-कहानियों में तो केवल विकथायें होने से पाप का ही पोषण होता है; परन्तु प्रथमानुयोग के कथाप्रसंगों में शलाका पुरुषों के चरित्र चित्रण के माध्यम से जहाँ-तहाँ प्रसंग पाकर पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का ही प्रयोजन प्रगट करते हैं। hotos 5 ह वं श क जीव कथाओं के रसिक होने से उन्हें पढ़ते-सुनते हैं तथा पाप को बुरा जानकर एवं धर्म को भला जानकर पाप छोड़ धर्म में रुचिवंत हो जाते हैं - यही प्रथमानुयोग का प्रयोजन है । इसीप्रकार सभी पुराणों में न केवल कथा मात्र; बल्कि प्रसंगानुसार धर्म व नीति का परिचय भी होता | है। इस ग्रन्थ में त्रिलोक का स्वरूप, महावीरस्वामी का संक्षिप्त जीवनचरित्र, समवसरण एवं धर्मोपदेश, संगीत | आदि कलाओं का वर्णन भी है, जिसकी प्रसंगानुसार संक्षिप्त जानकारी इस कृति में भी यथास्थान दी गई है। मूल हरिवंश पुराण के कर्त्ता महाकवि आचार्य जिनसेन पुन्नाट संघ के थे, पुन्नाट कर्नाटक का ही प्राचीन नाम है। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण था और उन्होंने अपनी यह रचना शक् संवत् ७०५ में अथवा जैन विक्रम सम्वत् ८४० में पूर्ण की थी। यह हरिवंशपुराण दिगम्बर सम्प्रदाय के कथा साहित्य में तो अपना प्रमुख स्थान रखता ही है, प्राचीनता की अपेक्षा भी संस्कृत कथा ग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान है। पहला रविषेणाचार्य का पद्मपुराण, दूसरा जटासिंहनन्दी का वरांगचरित्र और तीसरा जिनसेनाचार्य का यह हरिवंशपुराण है । प 10 50 150 150 F य भू मि

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