Book Title: Gyanbindu Parichaya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 8
________________ ३८२ जैन धर्म और दर्शन हैं । एक तो वह, जो नियुक्तिस्वीकृत प्रमाण विभाग की प्रतिष्ठा बढ़ाने से संबन्ध रखती है; और दूसरी वह, जो दर्शनान्तरीय प्रमाण की परिभाषा के साथ मेल बैठाती है और प्रासंगिक रूप से दर्शनान्तरीय प्रमाणविभाग का निराकरण करती है। (५) पाँचवीं भमिका, सिद्सेन दिवाकर के द्वारा किये गए ज्ञान के विचारविकास की है । सिद्धसेन ने जो अनुमानतः विक्रमीय पाँचवीं शताब्दी के ज्ञात होते हैं-अपनी विभिन्न कृतियों में, कुछ ऐसी बातें ज्ञान के विचार क्षेत्र में प्रस्तुत की हैं जो जैन परंपरा में उनके पहले न किसी ने उपस्थित की थीं और शायद न किसी ने सोची भी थीं। ये बातें तर्क दृष्टि से समझने में जितनी सरल हैं उतनी ही जैन परंपरागत रूढ़ मानस के लिए केवल कठिन ही नहीं बल्कि असमाधानकारक भी हैं। यही वजह है कि दिवाकर के उन विचारों पर, करीब हजार वर्ष तक, न किसी ने सहानुभूतिपूर्वक ऊहापोह किया और न उनका समर्थन ही किया । उपाध्यायजी ही एक ऐसे हुए, जिन्होंने सिद्धसेन के नवीन प्रस्तुत मुद्दों पर सिर्फ सहानुभूतिपूर्वक विचार ही नहीं किया, बल्कि अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा और तर्क से परिमार्जित जैन दृष्टि का उपयोग करके, उन मुद्दों का प्रस्तुत 'ज्ञानबिन्दु' ग्रन्थ में अति विशद और अनेकान्त दृष्टि को शोभा देनेवाला समर्थन भी किया । वे मुद्दे मुख्यतया चार हैं १. मति और श्रुत ज्ञान का वास्तविक ऐक्य' २. अवधि और मनःपर्याय ज्ञान का तत्त्वतः अभेदर ३ केवल ज्ञान और केवल दर्शन का वास्तविक अभेद' ४. श्रद्धानरूप दर्शन का ज्ञान से अभेद इन चार मुद्दों को प्रस्तुत करके सिद्धसेन ने, ज्ञान के भेद-प्रभेद की पुरानी रेखा पर तार्किक विचार का नया प्रकाश डाला है, जिनको कोई भी, पुरातन रूढ़ संस्कारों तथा शास्रों के प्रचलित व्याख्यान के कारण, पूरी तरह समझ न सका । जैन विचारकों में सिद्धसेन के विचारों के प्रति प्रतिक्रिया शुरू हुई। अनेक विद्वान् तो उनका प्रकट विरोध करने लगे, और कुछ विद्वान् इस बारे में उदासीन ही रहे । क्षमाश्रमण जिनभद्र गणी ने बड़े जोरों से विरोध किया। फिर भी हम १ देखो, निश्चयद्वात्रिंशिका का० १६, तथा ज्ञानबिन्दु पृ० १६ । २ देखो, निश्चयद्वा० का १७ और ज्ञानबिन्दु पृ० १८। ३ देखो, सन्मति काण्ड २ संपूर्ण; और ज्ञानबिन्दु पृ० ३३ से । ४ देखो, सन्मति, २. ३२; और ज्ञानबिन्दु पृ० ४७ । ५ जैसे, हरिभद्र-देखो, धर्मसंग्रहणी, गा० १३५२ से तथा नंदीवृत्ति, पृ.५५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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