Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 22
________________ ३६६ जैन धर्म और दर्शन दशा में पूर्ण ज्ञान के तारतम्य का खुलासा क्या है सो श्राप बतलाइए ? | इस का जबाब देते हुए उपाध्यायजी ने असली रहस्य यही बतलाया है कि पूर्ण शान केवलज्ञानावरण-जनित होने से सामान्यतया एकरूप ही हैं, फिर भी उसके अवान्तर तारतम्य का कारण अन्यावरणसंबन्धी क्षयोपशमों का वैविध्य है । घनमेघावृत सूर्य का पूर्ण - मन्द प्रकाश भी वस्त्र, कट, भित्ति आदि उपाधिभेद से नानारूप देखा हो जाता है । अतएव मतिज्ञानावरण आदि अन्य आवरणों के विविध क्षयोपशमों से --- विरलता से मन्द प्रकाश का तारतम्य संगत है । जब एकरूप मन्द प्रकाश भी उपाधिभेद से चित्र विचित्र संभव है, तब यह अर्थात् ही सिद्ध हो जाता है कि उन उपाधियों के हटने पर वह वैविध्य भी खतम हो जाता है । जब केवलज्ञानावरण क्षीण होता है तब बारहवें गुणस्थान के अन्त में अन्य मति आदि चार श्रावरण और उनके क्षयोपशम भी नहीं रहते । इसी से उस -समय अपूर्ण ज्ञान की तथा तद्गत तारतम्य की निवृत्ति भी हो जाती है । जैसे कि सान्द्र मेघपटल तथा वस्त्र आदि उपाधियों के न रहने पर सूर्य का मन्द प्रकाश तथा उसका वैविध्य कुछ भी बाकी नहीं रहता, एकमात्र पूर्ण प्रकाश ही - स्वतः प्रकट होता है; वैसे ही उस समय चेतना भी स्वत: पूर्णतया प्रकाशमान होती है जो कैवल्यज्ञानावस्था है । I उपाधि की निवृत्ति से उपाधिकृत अवस्थाओं की निवृत्ति चतलाते समय उपाध्यायजी ने आचार्य हरिभद्र के कथन का हवाला देकर श्राध्यात्मिक विकासक्रम के स्वरूप पर जानने लायक प्रकाश डाला है । उनके कथन का सार यह है कि आत्मा के औपाधिक पर्याय -- धर्म भी तीन प्रकार के हैं । जाति गति दि पर्याय मात्र कर्मोदयरूप - उपाधिकृत हैं । श्रतएव वे अपने कारणभूत श्रघाती कर्मो के सर्वथा हट जाने पर ही मुक्ति के समय निवृत्त होते हैं। क्षमा, सन्तोष आदि तथा मति ज्ञान श्रादि ऐसे पर्याय हैं जो क्षयोपशमजन्य हैं। तात्त्विक धर्मसंन्यास की प्राप्ति होने पर आठवें आदि गुणस्थानों में जैसे जैसे कर्म के क्षयोपशम का स्थान उसका क्षय प्राप्त करता जाता है वैसे वैसे क्षयोपशमरूप उपाधि के न रहने से उन पर्यायों में से तजन्य वैविध्य भी चला जाता है । जो पर्याय कर्मक्षयजन्य होने से क्षायिक अर्थात् पूर्ण और एकरूप ही हैं उन पर्यायों का अस्तित्व गर 'देहव्यापारादिरूप उपाधिसहित हैं, तो उन पूर्ण पर्यायों का भी अस्तित्व मुक्ति में ( जब कि देहादि उपाधि नहीं है ) नहीं रहता । अर्थात् उस समय वे पूर्ण पर्याय होते तो हैं, पर सोपाधिक नहीं; जैसे कि सदेह क्षायिकचारित्र भी मुक्ति में नहीं माना जाता । उपाध्यायजी ने उक्त चर्चा से यह बतलाया है कि आत्मपर्याय - वैभाविक -- उदयजन्य हो या स्वाभाविक पर अगर वे सोपाधिक हैं तो अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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