Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 35
________________ अहिंसा की मीमांसा ४०६ होता है कि अगर सर्वथा प्राणिघात वर्ज्य है तो धर्मस्थान का निर्माण तथा शिरोमुण्डन आदि कार्य भी नहीं किये जा सकते जो कि कर्तव्य समझे जाते हैं । यह शंकाविचार ' वाक्यार्थ' है । अवश्य कर्तव्य अगर शास्त्रविधिपूर्वक किया जाए तो उसमें होनेवाला प्राणिघात दोषावह नहीं, अविधिकृत ही दोषावह है । यह विचार 'महावाक्यार्थ' है । अन्त में जो जिनाज्ञा है वही एक मात्र उपादेय है ऐसा तात्पर्य निकालना 'ऐदम्पर्यार्थ ' है । इस प्रकार सर्व प्राणिहिंसा के सर्वथा निषेधरूप सामान्य नियम में जो विधिविहित अपवादों को स्थान दिलानेवाला और उत्सर्ग-अपवादरूप धर्ममार्ग स्थिर करनेवाला विचार प्रवाह ऊपर दिखाया गया उसको आचार्य हरिभद्र ने लौकिक दृष्टान्तों से समझाने का प्रयत्न किया है । हिंसा का प्रश्न उन्होंने प्रथम उठाया है जो कि जैन परंपरा की जड़ है । यों तो हिंसा समुच्चय श्रार्य परंपरा का सामान्य धर्म रहा है। फिर भी धर्म, क्रीडा, भोजन आदि अनेक निमित्तों से जो विविध हिंसाएँ प्रचलित रहीं उनका आत्यन्तिक विरोध जैन परंपरा ने किया । इस विरोध के कारण ही उसके सामने प्रतिवादियों की तरफ से तरह-तरह के प्रश्न होने लगे कि अगर जैन सर्वथा हिंसा का निषेध करते हैं तो वे खुद भी न जीवित रह सकते हैं और न धर्माचरण ही ही कर सकते हैं । इन प्रश्नों का जवाब देने की दृष्टि से ही हरिभद्र ने जैन समत अहिंसास्वरूप समझाने के लिए चार प्रकार के वाक्यार्थ बोध के उदाहरण रूप से सर्वप्रथम अहिंसा के प्रश्न को ही हाथ में लिया है । दूसरा प्रश्न निर्ग्रन्थत्व का है। जैन परंपरा में ग्रन्थ - वस्त्रादि परिग्रह रखने न रखने के बारे में दलभेद हो गया था । हरिभद्र के सामने यह प्रश्न खासकर दिगम्बरत्वपक्षपातियों की तरफ से ही उपस्थित हुआ जान पड़ता है । हरिभद्र ने जो दान का प्रश्न उठाया है वह करीब-करीब आधुनिक तेरापंथी संप्रदाय की विचारसरणी का प्रतिबिम्ब है । यद्यपि उस समय तेरापंथ या वैसा ही दूसरा कोई स्पष्ट पंथ न था; फिर भी जैन परंपरा की निवृत्ति प्रधान भावना में से उस समय भी दान देने के विरुद्ध किसी-किसी को विचार श्रा जाना स्वाभाविक था जिसका जवाब हरिभद्र ने दिया है। जैनसंमत तप का विरोध बौद्ध परंपरा पहले से ही करती श्रई है । उसी का जवाब हरिभद्र ने दिया है । इस तरह जैन धर्म के प्राणभूत सिद्धान्तों का स्वरूप उन्होंने उपदेशपद में चार प्रकार के वाक्यार्थबोध का निरूपण करने के प्रसंग में स्पष्ट किया है जो याज्ञिक विद्वानों १ देखो, मज्झिमनिकाय सुत्त० १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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