Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 71
________________ केवल ज्ञान और दर्शन ४४५ क्रमपक्ष का स्थापन तथा अनभिमत यौगपद्य तथा अभेद पक्ष का खण्डन किया है । क्षमाश्रमण की उक्त दोनों कृतियों में पाए जानेवाले खण्डन-मण्डनगत पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष की रचना तथा उसमें पाई जाने वाली अनुकूल-प्रतिकूलं युक्तियों का ध्यान से निरीक्षण करने पर किसी को यह मानने में सन्देह नहीं रह सकता कि क्षमाश्रमण के पूर्व लम्बे अर्से से श्वेताम्बर परंपरा में उक्त तीनों पक्षों के माननेवाले मौजूद थे और वे अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते हुए विरोधी पक्ष का निरास भी करते थे। यह क्रम केवल मौखिक ही न चलता था बल्कि शास्त्रबद्ध भी होता रहा । वे शास्त्र आज भले ही मौजूद न हों पर क्षमाश्रमण के उक्त दोनों ग्रंथों में उनका सार देखने को आज भी मिलता है। इस पर से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जिनभद्र के पहले भी श्वेताम्बर परंपरा में उक्त तीनों पक्षों को माननेवाले तथा परस्पर खण्डन-मण्डन करनेवाले आचार्य हुए हैं। जब कि कम से कम जिनभद्र के समय तक में ऐसा कोई दिगम्बर विद्वान नहीं हुअा जान पड़ता कि जिसने क्रम पक्ष या अभेद पक्ष का खण्डन किया हो। और दिगम्बर विद्वान की ऐसी कोई कृति तो आज तक भी उपलब्ध नहीं है जिसमें योगपद्य पक्ष के अलावा दूसरे किसी भी पक्ष का समर्थन हो। ' जो कुछ हो पर यहाँ यह प्रश्न तो पैदा होता ही है कि प्राचीन भागमों के पाठ सीधे तौर से जब क्रम पक्ष का ही समर्थन करते हैं तब जैन परंपरा में योगपद्य पक्ष और अभेद पक्ष का विचार क्यों कर दाखिल हुआ। इसका जबाब हमें दो तरह से सूझता है। एक तो यह कि जब असर्वज्ञवादी मीमांसक ने सभी सर्वज्ञवादियों के सामने यह आक्षेप किया कि तुम्हारे सर्वज्ञ अगर क्रम से सब पदार्थों को जानते हैं तो वे सर्वज्ञ ही कैसे ? और अगर एक साथ सभी पदार्थों को जानते हैं तो एक साथ सब जान लेने के बाद आगे वे क्या जानेंगे ? कुछ भी तो फिर अज्ञात नहीं है। ऐसी दशा में भी वे असर्वज्ञ ही सिद्ध हुए। इस आक्षेप का जवाब दूसरे सर्वज्ञवादियों की तरह जैनों को भी देना पास हुआ। इसी तरह बौद्ध आदि सर्वज्ञवादी भी जैनों के प्रति यह आक्षेप करते रहे होंगे कि तुम्हारे सर्वज्ञ अर्हत् तो क्रम से जानते देखते हैं; अतएव वे पूर्ण सर्वज्ञ कैसे ? इस आक्षेप का जबाब तो एक मात्र जैनों को ही देना प्राप्त था। इस तरह उपयुक्त तथा अन्य ऐसे आक्षेपों का जवाब देने की विचारणा में से सर्व प्रथम यौगपद्य पक्ष, क्रम पक्ष के विरुद्ध जैन परंपरा में प्रविष्ट हुआ । दूसरा यह भी संभव है कि जैन परंपरा के तर्कशील विचारकों को अपने आप ही क्रम पक्ष में त्रुटि दिखाई दी और उस त्रुटि की पूर्ति के विचार में से उन्हें योगपद्य पक्ष सर्व १ देखो, तत्त्वसंग्रह का० ३२४८ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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