Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 80
________________ 454 जैन धर्म और दर्शन आश्चर्य है / एक ही विषय में जुदे-जुदे विचारों को समान रूप से प्रधानता जो दूर की वस्तु है वह कहाँ दृष्टिगोचर होती है ? - इस जगह उपाध्यायजी ने शास्त्रप्रसिद्ध उन नयाश्रित पक्षभेदों को सूचना की है जो अज्ञाननाश और ज्ञानोत्पत्ति का समय जुदा-जुदा मानकर तथा एक मानकर प्रचलित हैं। एक पक्ष तो यही कहता है कि आवरण का नाश और ज्ञान की उत्पत्ति ये दोनों, हैं तो जुदा पर उत्पन्न होते हैं एक ही समय में। जब कि दूसरा पक्ष कहता है कि दोनों की उत्पत्ति समयभेद से होती है। प्रथम अज्ञाननाश और पीछे ज्ञानोत्पत्ति / तीसरा पक्ष कहता है कि अज्ञान का नाश और ज्ञान की उत्पत्ति ये कोई जुदे-जुदे भाव नहीं हैं एक ही वस्तु के बोधक अभावप्रधान और भावप्रधान दो भिन्न शब्द मात्र हैं / ५.--जिस जैन शास्त्र ने अनेकान्त के बल से सत्त्व और असत्त्व जैसे परस्पर विरुद्ध धर्मों का समन्वय किया है और जिसने विशेष्य को कभी विशेषण और विशेषण को कभी विशेष्य मानने का कामचार स्वीकार किया है, वह जैन शास्त्र ज्ञान के बारे में प्रचलित तीनों पक्षों की गौण प्रधान-भाव से व्यवस्था करे तो वह संगत ही है। ६-स्वसमय में भी जो अनेकान्त ज्ञान है वह प्रमाण और नय उभय द्वारा सिद्ध है। अनेकान्त में उस-उस नय का अपने-अपने विषय में अाग्रह अवश्य रहता है पर दूसरे नय के विषय में तटस्थता भी रहती ही है। यही अनेकान्त की खूबी है / ऐसा अनेकान्त कभी सुगुरुत्रों की परंपरा को मिथ्या नहीं ठहराता / विशाल बुद्धि वाले विद्वान् सद्दर्शन उसी को कहते हैं जिसमें सामञ्जस्य को स्थान हो। ७-खल पुरुष हतबुद्धि होने के कारण नयों का रहस्य तो कुछ भी नहीं जानते परंतु उल्टा वे विद्वानों के विभिन्न पक्षों में विरोध बतलाते हैं / ये खल सचमुच चन्द्र और सूर्य तथा प्रकृति और विकृति का व्यत्यय करने वाले हैं। अर्थात् वे रात को दिन तथा दिन को रात एवं कारण को कार्य तथा कार्य को कारण कहने में भी नहीं हिचकिचाते / दुःख की बात है कि वे खल भी गुण की खोज नहीं सकते। ८--प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु ग्रन्थ के असाधारण स्वाद के सामने कल्पवृक्ष का फलस्वाद क्या चीज़ है तथा इस ज्ञानबिन्दु के आस्वाद के सामने द्राक्षास्वाद, अमृतवर्षा, और स्त्रीसंपत्ति आदि के आनंद की रमणीयता भी क्या चीज है ? ई० 1640 [ ज्ञानबिन्दु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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