Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ उपाध्यायजी का समन्वय .४५३ . १-जो लोग गतानुगतिक बुद्धिवाले होने के कारण प्राचीन शास्त्रों का अक्षरशः अर्थ करते हैं और नया तर्कसंगत भी अर्थ करने में या उसका स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं उनको लक्ष्य में रखकर उपाध्यायजी कहते हैं कि--शास्त्र के पुराने वाक्यों में से युक्तिसंगत नया अर्थ निकालने में वे ही लोग डर सकते हैं जो तर्कशास्त्र से अनभिज्ञ हैं । तर्कशास्त्र के जानकार तो अपनी प्रज्ञा से नएनए अर्थ प्रकाशित करने में कभी नहीं हिचकिचाते । इस बात का उदाहरण सन्मति का दूसरा काण्ड ही है। जिसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में क्रम, यौगपद्य तथा अभेद पक्ष का खण्डन-मण्डन करनेवाली चर्चा है । जिस चर्चा में पुराने एक ही सूत्रपाक्यों में से हर एक पक्षकार ने अपने अपने अभिप्रेत पक्ष को सिद्ध करने के लिए तर्क द्वारा जुदे-जुदे अर्थ फलित किये हैं। २-मल्लवादी जो एक ही समय में ज्ञान-दर्शन दो उपयोग मानते हैं उन्होंने भेदस्पर्शी व्यवहार नय का आश्रय लिया है। अर्थात् मल्लवादी का योगपद्य वाद व्यवहार नय के अभिप्राय से समझना चाहिए । पूज्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जो क्रम वाद के समर्थक हैं वे कारण और फल की सीमा में शुद्ध ऋजुसूत्र नय का प्रतिपादन करते हैं। अर्थात् वे कारण और फलरूप से ज्ञान-दर्शन का भेद तो व्यवहारनयसिद्ध मानते ही हैं पर उस भेद से आगे बढ़ कर वे ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से मात्र एकसमयावच्छिन्न वस्तु का अस्तित्व मान कर ज्ञान और दर्शन को भिन्न-भिन्न समयभावी कार्यकारणरूप से क्रमवर्ती प्रतिपादित करते हैं । सिद्धसेन सूरि जो अभेद पक्ष के समर्थक हैं उन्होंने संग्रह नय का आश्रय किया है जो कि कार्य कारण या अन्य विषयक भेदों के उच्छेद में ही प्रवण है । इसलिए ये तीनों सूरिपक्ष नयभेद की अपेक्षा से परस्पर विरुद्ध नहीं हैं । ३~-केवल पर्याय उत्पन्न होकर कभी विच्छिन्न नहीं होता। अतएव उस सादि अनंत पर्याय के साथ उसकी उपादानभूत चैतन्यशक्ति का अभेद मानकर ही चैतन्य को शास्त्र में सादि-अनंत कहा है। और उसे जो क्रमवर्ती या सादिमान्त कहा है, सो केवल पर्याय के भिन्न-भिन्न समयावच्छिन्न अंशों के साथ चैतन्य की अभेद विवक्षा से । जब केवलपर्याय एक मान लिया तब तद्गत सूक्ष्म भेद विवक्षित नहीं है । और जब कालकृत सूक्ष्म अंश विवक्षित है तब उस केवलपर्याय की अखण्डता गौण है। . ४---भिन्न भिन्न क्षणभावी अज्ञान के नाश और ज्ञानों की उत्पत्ति के भेद के आधार पर प्रचलित ऐसे भिन्न-भिन्न नयाश्रित अनेक पक्ष शास्त्र में जैसे सुने जाते हैं वैसे ही अगर तीनों प्राचार्यों के पक्षों में नयाश्रित मतभेद हो तो क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80