Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 40
________________ ४१४ जैन धर्म और दर्शन पहला तो यह कि वह संबंधी ऊहापोह मुख्यतया चार बलों पर अवलंबित है । प्रधानतया साधु जीवन का ही अतएव नवकोटिक -पूर्ण हिंसा का ही विचार करता है । दूसरा यह कि वह ब्राह्मण परंपरा में विहित मानी जानेवाली और प्रतिष्ठित समझी जानेवाली यज्ञीय आदि अनेकविध हिंसाओं का विरोध करता है । तीसरा यह कि वह अन्य श्रमण परंपराओं के त्यागी जीवन की अपेक्षा भी जैन श्रमण का त्यागी जीवन विशेष नियंत्रित रखने का श्राग्रह रखता है । चौथा यह कि वह जैन परंपरा के ही अवान्तर फिरकों में उत्पन्न होनेवाले पारस्परिक विरोध के प्रश्नों के निराकरण का भी प्रयत्न करता है । नवकोटिक - पूर्ण हिंसा के पालन का श्राग्रह भी रखना और संयम या सद्गुण विकास की दृष्टि से जीवननिर्वाह का समर्थन भी करना - इस विरोध में से "हिंसा के द्रव्य, भाव आदि भेदों का ऊहापोह फलित हुआ और अन्त में एक मात्र निश्चय सिद्धान्त यही स्थापित हुआ कि आखिर को प्रमाद ही हिंसा है । प्रत्त जीवनव्यवहार देखने में हिंसात्मक हो तब भी वह वस्तुतः अहिंसक ही है । जहाँ तक इस आखरी नतीजे का संबंध है वहाँ तक श्वेताम्बर दिगम्बर आदि किसी भी जैन फिरके का इसमें थोड़ा भी मतभेद नहीं है। सच फिरकों की विचारसरणी परिभाषा और दलीलें एक-सी हैं। यह हम ज्ञानविन्दु के टिप्पण गत श्वेताम्बरीय विस्तृत अवतरणों से भली-भांति जान सकते हैं । वैदिक परंपरा में यज्ञ, अतिथि श्राद्ध आदि अनेक निमित्तों से होने वाली जो हिंसा धार्मिक मानकर प्रतिष्ठित करार दी जाती थी उसका विरोव सांख्य, बौद्ध और जैन परंपरा ने एक सा किया है फिर भी आगे जाकर इस विरोध में मुख्य भाग बौद्ध और जैन का ही रहा है। जैन वाङ्मयगत अहिंसा के ऊहापोह में उक्त . विरोध की गहरी छाप और प्रतिक्रिया भी है । पद-पद पर जैन साहित्य में वैदिक हिंसा का खण्डन देखा जाता है। साथ ही जब वैदिक लोग जैनों के प्रति यह आशंका करते हैं कि अगर धार्मिक हिंसा भी कर्तव्य है तो तुम जैन लोग अपनी समाज रचना में मन्दिर निर्माण, देवपूजा आदि धार्मिक कृत्यों का समावेश अहिंसक रूप से कैसे कर सकोगे इत्यादि । इस प्रश्न का खुलासा भी जैन वाङ्मय के हिंसा संबंधी ऊहापोह में सविस्तर पाया जाता है । प्रमाद - मानसिक दोष ही मुख्यतया हिंसा है और उस दोष में से जनित ही प्राण-नाश हिंसा है । यह विचार जैन और बौद्ध परंपरा में एक-सा मान्य है | फिर भी हम देखते हैं कि पुराकाल से जैन और बौद्ध परंपरा के बीच अहिंसा के संबंध में पारस्परिक खण्डन-मण्डन बहुत हुआ है । 'सूत्रकृताङ्ग' जैसे . प्राचीन आगम में भी हिंसा संबंधी बौद्ध मन्तव्य का खंडन है । इसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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