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अहिंसा की मीमांसा
भेद है। श्रमण परंपरा की जीवनदृष्टि प्रधानतया वैयक्तिक और आध्यात्मिक रही है, जब कि ब्राह्मण परंपरा की जीवनदृष्टि प्रधानतया सामाजिक या लोकसंग्राहक रही है। पहली में लोकसंग्रह तभी तक इष्ट है जब तक वह श्राध्यात्मिकता का विरोधी न हो। जहाँ उसका आध्यात्मिकता से विरोध दिखाई दिया वहाँ पहली दृष्टि लोकसंग्रह की अोर उदासीन रहेगी या उसका विरोध करेगी। जब कि दूसरी दृष्टि में लोकसंग्रह इतने विशाल पैमाने पर किया गया है कि जिससे उसमें आध्यात्मिकता और भौतिकता परस्पर टकराने नहीं पाती।
श्रमण परंपरा की अहिंसा संबंधी विचारधारा का एक प्रवाह अपने विशिष्ट रूप से बहता था जो कालक्रम से आगे जाकर दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर के जीवन में उदात्त रूप में व्यस्त हुआ । हम उस प्रकटीकरण को 'आचाराङ्ग'. 'सूत्रकृताङ्ग' आदि प्राचीन जैन आगमों में स्पष्ट देखते हैं । अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा तो आत्मौपम्य की दृष्टि में से ही हुई थी। पर उक्त आगमों में उसका निरूपण और विश्लेषण इस प्रकार हुअा है
१. दुःख और भय का कारण होने से हिंसामात्र वज्यं है, यह अहिंसा सिद्धान्त की उपपन्ति ।
२. हिंसा का अर्थ यद्यपि प्राणनाश करना या दुःख देना है तथापि हिंसाजन्य दोष का आधार तो मात्र प्रमाद अर्थात् रागद्वेषादि ही है। अगर प्रमाद. या आसक्ति न हो तो केवल प्राणनाश हिंसा कोटि में या नहीं सकता, यह अहिंसा का विश्लेषण।
३. वध्यजीवों का कद, उनकी संख्या तथा उनकी इन्द्रिय अादि संपत्ति के तारतम्य के ऊपर हिंसा के दोष का तारतम्य अवलंबित नहीं है, किन्तु हिंसक के परिणाम या वृत्ति की तीव्रता-मंदता, सज्ञानता-अज्ञानता या बल प्रयोग की न्यूनाधिकता के ऊपर अवलंबित है, ऐसा कोटिक्रम ।
उपर्युक्ति तीनों बातें भगवान् महावीर के विचार तथा प्राचार में से फलित होकर आगमों में ग्रथित हुई हैं । कोई एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह कैसा ही
आध्यात्मिक क्यों न हो पर वह संयमलती जीवनधारण का भी प्रश्न सोचता है तब उसमें से उपयुक्त विश्लेषण तथा कोटिक्रम अपने श्राप ही फलित हो जाता है । इस दृष्टि से देखा जाए तो कहना पड़ता है कि आगे के जैन वाङ्मय में अहिंसा के संबंध में जो विशेष ऊहापोह हुआ है उसका मूल आधार तो प्राचीन आगमों में प्रथम से ही रहा ।
समूचे जैन वाङ्मय में पाए जानेवाले अहिंसा के ऊहापोह पर जब हम दृष्टिपात करते हैं, तब हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि जैन वाङ्मय का अहिंसा
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