Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 49
________________ मतिज्ञान के विशेषनिरूपण में नया ऊहापोह ४. वोपन ५. जवन तथा जवनानुबन्ध तदारम्भणपाक (२) [३८] प्रामाण्यनिश्चय के उपाय के बारे में ऊहापोह करते समय उपाध्यायजी ने मलयगिरिं सूरि के मत की खास तौर से समीक्षा की है । मलयगिरि सूरि का ' मन्तव्य है कि अवायगत प्रामाण्य का निर्णय अवाय की पूर्ववर्तनी ईहा से ही होता है, चाहे वह ईहा लक्षित हो या न हो। इस मत पर उपाध्यायजी ने आपत्ति उठा कर कहा है, [ ३६ ] कि अगर ईहा से ही वाय के प्रामाण्य का निर्णय माना जाए तो वादिदेवसूरि का प्रामाण्यनिर्णयविषयक स्वतस्त्व- परतस्त्व का पृथक्करण कभी वट नहीं सकेगा । मलयगिरि के मत की समीक्षा में उपाध्यायजी ने बहुत सूक्ष्म कोटिक्रम उपस्थित किया है । उपाध्यायजी जैसा व्यक्ति, जो मलयगिरि सूरि आदि जैसे पूर्वाचार्यों के प्रति बहुत ही आदरशील एवं उनके अनुगामी हैं, वे उन पूर्वाचार्यों के मत की खुले दिल से समालोचना करके सूचित करते हैं कि विचार के शुद्धीकरण एवं सत्यगवेषणा के पथ में अविचारी अनुसरण बाधक ही होता है । ४ सविकल्पक निर्णय ५. धारावाहि ज्ञान तथा संस्कार-स्मरण ४ अवाय ५. धारणा Jain Education International (३) [४०] उपाध्यायजी को प्रसंगवश अनेकान्त दृष्टि से प्रामाण्य के स्वतस्त्व- परतस्त्व निर्णय की व्यवस्था करनी इष्ट है । इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए उन्होंने दो एकान्तवादी पक्षकारों को चुना है जो परस्पर विरुद्ध मन्तव्य वाले हैं । मीमांसक मानता है कि प्रामाण्य की सिद्धि स्वतः ही होती है; तुत्र नैयायिक कहता है कि प्रामाण्य की सिद्धि परतः ही होती है । उपाध्यायजी ने पहले तो मीमांसक के मुख से स्वतः प्रामाण्य का ही स्थापन कराया है; और पीछे उसका arse नैयायिक के मुख से करा कर उसके द्वारा स्थापित कराया है कि प्रामाण्य की सिद्धि परतः ही होती है । मीमांसक और नैयायिक की परस्पर खण्डन भण्डन वाली प्रस्तुत प्रामाण्यसिद्धिविषयक चर्चा प्रामाण्य के खास 'तद्वति तत्प्रकारकत्व - रूप' दार्शनिकसंमत प्रकार पर ही कराई गई है। इसके पहले उपाध्यायजी ने सैद्धान्तिकसंगत और तार्किकसंमत ऐसे अनेकविध प्रामाण्य के प्रकारों को एक-एक करके चर्चा के लिए चुना है और अन्त में बतलाया है कि ये सब प्रकार प्रस्तुत चर्चा के लिए उपयुक्त नहीं । केवल 'तद्वति तत्प्रकारकत्वरूप' उसका प्रकार ही प्रस्तुत स्वतः परतस्त्व की सिद्धि की चर्चा के लिए उपयुक्त है । अनुपयोगी कह कर छोड़ दिए गए जिन और जितने प्रामाण्य के प्रकारों का, उपाध्यायजी ने १ देखो, नन्दीसूत्र की टीका, पृ० ७३ । ४२३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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