Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 54
________________ जैन धर्म और दर्शन इनमें समय-समय पर विकास होता रहा है । उपाध्यायजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वज्ञत्व की समर्थक जिस युक्ति को उपस्थित किया है वह युक्ति उद्देश्यतः प्रतिवादी मीमांसकों के संमुख ही रखी गई है । मीमांसक का कहना है कि ऐसा कोई शास्त्रनिरपेक्ष मात्र आध्यात्मिकशक्तिजन्य पूर्ण ज्ञान हो नहीं सकता जो धर्माधर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों का भी साक्षात्कार कर सके । उसके सामने सार्वज्ञ्यवादियों की एक युक्ति यह रही है कि जो वस्तु ' सातिशय-तरतमभावापन्न होती है वह बढ़ते-बढ़ते कहीं न नहीं पूर्ण दशा को प्राप्त कर लेती है । जैसे कि परिमाण | परिमाण छोटा भी है और तरतमभाव से बड़ा भी । अतएव वह श्राकाशादि में पूर्ण काष्ठा को प्राप्त देखा जाता है। यही हाल ज्ञान का भी है। ज्ञान कहीं अल्प तो कहीं अधिक — इस तरह तरतमवाला देखा जाता है । अतएव वह कहीं न कहीं संपूर्ण भी होना चाहिए । जहाँ वह पूर्णकला प्रास होगा वही सर्वज्ञ | इस युक्ति के द्वारा उपाध्यायजी ने भी ज्ञानविन्दु में केवल ज्ञान के अस्तित्व का समर्थन किया है । यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न है कि प्रस्तुत युक्ति का मूल कहाँ तक पाया जाता है और वह जैन परंपरा में कब से आई देखी जाती है । अभी तक के हमारे वाचन- चिन्तन से हमें यही जान पड़ता है कि इस युक्ति का पुराणतम उल्लेख योगसूत्र के अलावा अन्यत्र नहीं है । हम पातंजल योगसूत्र के प्रथमपाद में 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' [ १.२५. ] ऐसा सूत्र पाते हैं, जिसमें साफ तौर से यह बतलाया गया है कि ज्ञान का तारतम्य ही सर्वश के अस्तित्व का बीज है जो ईश्वर में पूर्णरूपेण विकसित है । इस सूत्र के ऊपर के भाष्य में व्यास ने तो मानों सूत्र के विधान का आशय हस्तामलकवत् प्रकट किया है । न्यायवैशेषिक परंपरा जो सर्वज्ञवादी है उसके सूत्र भाष्य आदि प्राचीन ग्रंथों में इस सर्वज्ञास्तित्व की साधक युक्ति का उल्लेख नहीं है, हम प्रशस्तपाद की टीका व्योमवती [ पृ० ५६० ] में उसका उल्लेख पाते हैं। पर ऐसा कहना नियुक्तिक नहीं होगा कि व्योमती का वह उल्लेख योगसूत्र तथा उसके भाग्य के बाद का ही है। काम की किसी भी अच्छी दलील का प्रयोग जब एक बार किसी के द्वारा चर्चाक्षेत्र में या जाता है तब फिर आगे वह सर्वसाधारण हो जाता है । प्रस्तुत युक्ति के बारे में भी यही हुआ जान पड़ता है। संभवतः सांख्य योग परंपरा ने उस युक्ति का आविष्कार किया फिर उसने न्याय-वैशेषिक तथा चौद्ध परंपरा के १ देखो, ज्ञानबिन्दु, टिप्पण पृ० १०८. पं० १६ । २ देखो, तत्त्व संग्रह, पृ० ८२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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