Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 55
________________ केवलज्ञान का परिष्कृत लक्षण ४२६ ग्रंथों में भी प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया और इसी तरह वह जैन परंपरा में भी प्रतिष्ठित हुई। जैन परंपरा के आगम, नियुक्ति, भाष्य आदि प्राचीन अनेक ग्रन्थ सर्वज्ञत्व के वर्णन से भरे पड़े हैं, पर हमें उपर्युक्त ज्ञानतारतम्य वाली सर्वज्ञत्वसाधक युक्ति का सर्व प्रथम प्रयोग मल्लवादी की कृति में ही देखने को मिलता है। अभी यह कहना संभव नहीं कि मल्लवादी ने किस परंपरा से वह यक्ति अपनाई। पर इतना तो निश्चित है कि मल्लवादी के बाद के सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकों ने इस युक्ति का उदारता से उपयोग किया है। उपाध्यायजी ने भी ज्ञानबिन्दु में केवलज्ञान के अस्तित्व को सिद्ध करने के वास्ते एक मात्र इसी युक्ति का प्रयोग तथा पल्लवन किया है । (२) केवलज्ञान का परिष्कृत लक्षण [५७ ] प्राचीन आगम, नियुक्ति आदि ग्रन्थों में तथा पीछे के तार्किक ग्रंथों में जहाँ कहीं केवलज्ञान का स्वरूप जैन विद्वानों ने बतलाया है वहाँ स्थूल शब्दों में इतना ही कहा गया है कि जो आत्ममात्रसापेक्ष या बाह्यसाधननिरपेक्ष साक्षाकार, सब पदार्थों को अर्थात् त्रैकालिक द्रव्य-पर्यायों को विषय करता है वही केवलज्ञान है। उपाध्यायजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में केवलज्ञान का स्वरूप तो वही माना है पर उन्होंने उसका निरूपण ऐसी नवीन शैली से किया है जो उनके पहले के किसी जैन ग्रन्थ में नहीं देखी जाती । उपाध्यायजी ने नैयायिक उदयन तथा गंगेश आदि की परिष्कृत परिभाषा में केवलशान के स्वरूप का लक्षण सविस्तर स्पष्ट किया है। इस जगह इनके लक्षण से संबन्ध रखनेवाले दो मुद्दों पर दार्शनिक तुलना करनी प्राप्त है, जिनमें पहला है साक्षात्कारत्व का और दूसरा है सर्वविषयकत्व का । इन दोनों मुद्दों पर मीमांसक भिन्न सभी दार्शनिकों का ऐकमत्य है । अगर उनके कथन में थोड़ा अन्तर है तो वह सिर्फ परंपरा भेद का ही है। न्याय-वैशेषिक दर्शन जब 'सर्व' विषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह 'सर्व' शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण श्रादि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है । सांख्य-योग जब 'सर्व' विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परंपरा में प्रसिद्ध प्रकृति, पुरुष आदि २५ तत्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है । बौद्ध दर्शन 'सर्व' शब्द से अपनी २ देखो, नयचक्र, लिखित प्रति, पृ० १२३ अ) ३ देखो, तत्त्वसंग्रह, का० ३१३४; तथा उसकी पञ्जिका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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