Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 53
________________ केवलज्ञान की चर्चा ४२७ प्रेमेयों पर उपाध्यायजी ने विचार किया है उनमें से नीचे लिखे विचारों पर यहाँ कुछ विचार प्रदर्शित करना इष्ट है (१) केवल ज्ञान के अस्तित्व की साधक युक्ति 1 (२) केवल ज्ञान के स्वरूप का परिष्कृत लक्षण । (३) केवल ज्ञान के उत्पादक कारणों का प्रश्न । (४) रागादि दोषों के ज्ञानावारकत्व तथा कर्मजन्यत्व का प्रश्न । (५) नैरात्म्यभावना का निरास । (६) ब्रह्मज्ञान का निरास । (७) श्रुति और स्मृतियों का जैन मतानुकूल व्याख्यान । (८) कुछ ज्ञातव्य जैन मन्तव्यों का कथन | (६) केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रम तथा भेदाभेद के संबन्ध में पूर्वाचार्यों के पक्षभेद | (१०) ग्रंथकार का तात्पर्य तथा उनकी स्वोपज्ञ विचारणा । (१) केवल ज्ञान के अस्तित्व की साधक युक्ति [ ५८ ] भारतीय तत्त्वचिन्तकों में जो आध्यात्मिक शक्तिवादी हैं, उनमें भी आध्यात्मिकशक्तिजन्य ज्ञान के बारे में संपूर्ण ऐकमत्य नहीं । श्राध्यात्मिकशक्तिजन्य ज्ञान संक्षेप में दो प्रकार का माना गया है । एक तो वह जो इन्द्रियागम्य ऐसे सूक्ष्म मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सके । दूसरा वह जो मूर्त-अमूर्त सभी त्रैकालिक वस्तुओं का एक साथ साक्षात्कार करे । इनमें से पहले प्रकार का साक्षात्कार तो सभी आध्यात्मिक तत्त्वचिन्तकों को मान्य है, फिर चाहे नाम आदि के संबन्ध में भेद भले ही हो । पूर्व मीमांसक जो आध्यात्मिकशक्तिजन्य पूर्ण साक्षात्कार या सर्वज्ञत्व' का विरोधी है उसे भी पहले प्रकार के आध्यात्मिकशक्तिजन्य अपूर्ण साक्षात्कार को मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । मतभेद है तो सिर्फ श्राध्यात्मिक शक्तिजन्य पूर्ण साक्षात्कार के हो सकने न हो सकने के विषय में । मीमांसक के सिवाय दूसरा कोई आध्यात्मिक वादी नहीं है जो ऐसे सार्वज्ञ्य – पूर्ण साक्षात्कार को न मानता हो । सभी सार्वत्यवादी परंपराओं के शास्त्रों में पूर्ण साक्षात्कार के अस्तित्व का वर्णन तो परापूर्व से चला ही आता है; पर प्रतिवादी के सामने उसकी समर्थक युक्तियाँ हमेशा एक-सी नहीं रही हैं । १ सर्वज्ञत्ववाद के तुलनात्मक इतिहास के लिए देखो, प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण, पृ० २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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