Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 62
________________ ४३६ जैन धर्म और दर्शन भावना वह है जिसमें यह विश्वास किया जाता है कि स्थिर आत्मा जैसी या द्रव्य जैसी कोई वस्तु है ही नहीं । जो कुछ है वह सब क्षणिक एवं अस्थिर ही है । इसके विपरीत ब्रह्मभावना वह है जिसमें यह विश्वास किया जाता है कि ब्रह्म अर्थात् श्रात्म-तत्त्व के सिवाय और कोई वस्तु पारमार्थिक नहीं है; तथा श्रात्म-तत्त्व भी भिन्न-भिन्न नहीं है । विवेकभावना वह है जो आत्मा और जड़ दोनों द्रव्यों का पारमार्थिक और स्वतन्त्र अस्तित्व मानकर चलती है । विवेकभावना को भेदभावना भी कह सकते हैं। क्योंकि उसमें जड़ और चेतन के पारस्परिक भेद की तरह जड़ तत्त्व में तथा चेतन तत्त्व में भी भेद मानने का अवकाश है । उक्त तीनों भावनाएँ स्वरूप एक दूसरे से बिलकुल विरुद्ध हैं, फिर भी उनके द्वारा उद्देश्य सिद्धि में कोई अन्तर नहीं पड़ता । नैरात्म्यभावना के समर्थक बौद्ध कहते हैं कि अगर आत्मा जैसी कोई स्थिर वस्तु हो तो उस पर में राग और दुःख में द्वेष होता स्नेह भी शाश्वत रहेगा; जिससे तृष्णामूलक सुख में है। जब तक सुख-राग और दुःख-द्वेष हो तब तक प्रवृत्ति निवृत्ति – संसार का चक्र भी रुक नहीं सकता । अतएव जिसे संसार को छोड़ना हो उसके लिए सरल व मुख्य उपाय श्रात्माभिनिवेश छोड़ना ही है । बौद्ध दृष्टि के अनुसार सारे दोषों की जड़ केवल स्थिर आत्म-तत्त्व के स्वीकार में है । एक बार उस अभिनिवेश का सर्वथा परित्याग किया फिर तो न रहेगा बांस और न बजेगी बाँसुरीअर्थात् जड़ के कट जाने से स्नेह और तृष्णामूलक संसारचक्र अपने आप बंध पड़ जाएगा । ब्रह्मभावना के समर्थक कहते हैं कि अज्ञान ही दुःख व संसार की जड़ है । हम ग्रात्मभिन्न वस्तुत्रों को पारमार्थिक मानकर उन पर महत्व - ममत्व धारण करते हैं और तभी रागद्वेषमूलक प्रवृत्ति-निवृत्ति का चक्र चलता है । अगर हम ब्रह्मभिन्न वस्तुओं में पारमार्थिकत्व मानना छोड़ दें और एक मात्र ब्रह्म का ही पारमार्थिकत्व मान लें तत्र अज्ञानमूलक अर्हत्व - ममत्व की बुद्धि नष्ट हो जाने से तन्मूलक राग-द्वेषजन्य प्रवृत्तिनिवृत्ति का चक्र अपने आप ही रुक जाएगा ! विवेकभावना के समर्थक कहते हैं कि आत्मा और जड़ दोनों में पारमार्थिकल्व बुद्धि हुई -- इतने मात्र से हंस्व-ममत्व पैदा नहीं होता और न आत्मा को स्थिर मानने मात्र से रागद्वेषादि की प्रवृत्ति होती है। उनका मन्तव्य है कि आत्मा को आत्मरूप न समझना और अनात्मा को अनात्मरूप न समझना यह ज्ञान है । अतएव जड़ में आत्मबुद्धि और आत्मा में जड़त्व की या शून्यत्व की बुद्धि करना यही ज्ञान है । इस अज्ञान को दूर करने के लिए विवेकभावना की श्रावश्यकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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