Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 66
________________ ४. जैन धर्म और दर्शन उन्होंने ऐसे अनेक श्रुति-स्मृति गत वाक्य उद्धृत किये हैं जो ब्रह्मज्ञान, एवं उसके द्वारा अज्ञान के नाश का, तथा अन्त में ब्रह्मभाव प्राप्ति का वर्णन करते हैं। उन्हीं वाक्यों में से जैनप्रक्रिया फलित करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि ये सभी श्रुति-स्मृतियाँ जैनसंमत कर्म के व्यवधायकत्व का तथा क्षीणकर्मत्वरूप जैनसंमत ब्रह्मभाव का ही वर्णन करती हैं। भारतीय दार्शनिकों की यह परिपाटी रहो है कि पहले अपने पक्ष के सयुक्तिक समर्थन के द्वारा प्रतिवादी के पक्ष का निरास करना और अन्त में सम्भव हो तो प्रतिवादी के मान्य शास्त्रवाक्यों में से ही अपने पक्ष को फलित करके बतलाना । उपाध्यायजी ने भी यही किया है । (E) कुछ ज्ञातव्य जैनमन्तव्यों का कथन ब्रह्मज्ञान की प्रक्रिया में आनेवाले जुदे-जुदे मुद्दों का निरास करते समय उपाध्यायजी ने उस-उस स्थान में कुछ जैनदर्शनसंमत मुद्दों का भी स्पष्टीकरण किया है । कहीं तो वह स्पष्टीकरण उन्होंने सिद्धसेन की सन्मतिगत गाथाओं के आधार से किया है और कहीं युक्ति और जैनशास्त्राभ्यास के बल से | जैन प्रक्रिया के अभ्यासियों के लिए ऐसे कुछ मन्तव्यों का निर्देश यहाँ कर देना जरूरी है। (१) जैन दृष्टि से निर्विकल्पक बोध का अर्थ । (२ ब्रह्म की तरह ब्रह्मभिन्न में भी निर्विकल्पक बोध का संभव । (३) निर्विकल्पक और सविकल्पक बोध का अनेकान्त | (४) निविकल्पक बोध भी शाब्द नहीं है किन्तु मानसिक है-ऐसा समर्थन । (५) निर्विकल्पक बोध भी अवग्रह रूप नहीं किन्तु अपाय रूप है-ऐसा प्रति पादन (१) [६० ] वेदान्तप्रक्रिया कहती है कि जब ब्रह्मविषयक निर्विकल्प बोध होता है तब वह ब्रह्म मात्र के अस्तित्व को तथा भिन्न जगत् के अभाव को सूचित करता है । साथ ही वेदान्तप्रक्रिया यह भी मानती है कि ऐसा निर्विकल्पक बोध सिर्फ ब्रह्मविषयक ही होता है अन्य किसी विषय में नहीं। उसका यह भी मत है कि निर्विकल्पक बोध हो जाने पर फिर कभी सविकल्पक बोध उत्पन्न ही नहीं होता। इन तीनों मन्तव्यों के विरुद्ध उपाध्यायजी जैन मन्तव्य बतलाते हुए कहते हैं कि निर्विकल्पक बोध का अर्थ है शुद्ध द्रव्य का उपयोग, जिसमें किसी भी पर्याय के विचार की छाया तक न हो। अर्थात् जो शान समस्त पर्यायों के संबंध का असंभव विचार कर केवल द्रव्य को ही विषय करता है, नहीं कि चिन्त्यमान द्रव्य से भिन्न जगत् के अभाष को भी। वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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