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अवधि और मनःपमय की चर्चा
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अनुभवों का, कहीं-कहीं मिलते जुलते शब्दों में और कहीं दूसरे शब्दों में वर्णन मिलता है । जैन वाङ्मय में आध्यात्मिक अनुभव - साक्षात्कार के तीन प्रकार वर्णित हैं - अवधि, मनःपर्याय और केवल । अवधि प्रत्यक्ष वह है जो इन्द्रियों के I द्वारा अगम्य ऐसे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सके | मनःपर्याय प्रत्यक्ष वह है जो मात्र मनोगत विविध अवस्थाओं का साक्षाकार करे । इन दो प्रत्यक्षों का जैन वाङमय में बहुत विस्तार और भेद-प्रभेद वाला मनोरञ्जक वर्णन है ।
वैदिक दर्शन के अनेक ग्रन्थों में खास कर 'पातञ्जलयोगसूत्र' और उसके भाष्य आदि में - उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष का योगविभूतिरूप से स्पष्ट और आकर्षक वर्णन है ' । 'वैशेषिकसूत्र' के 'प्रशस्तपादभाष्य' में भी थोड़ा-सा किन्तु स्पष्ट वर्णन है । बौद्ध दर्शन के 'मज्झिमनिकाय' जैसे पुराने ग्रंथों में भी वैसे आध्यात्मिक प्रत्यक्ष का स्पष्ट वर्णन है । जैन परंपरा में पाया जानेवाला 'अवधिज्ञान' शब्द तो जैनेतर परंपराओं में देखा नहीं जाता पर जैन परंपरा का 'मनःपर्याय' शब्द तो 'परचित्तज्ञान" या 'परचित्तविजानना" जैसे सदृशरूप में अन्यत्र देखा जाता है । उक्त दो ज्ञानों की दर्शनान्तरीय तुलना इस प्रकार है-१. जैन
२. वैदिक
३. बौद्ध
वैशेषिक १ अवधि १ वियुक्तयोगिप्रत्यक्ष
अथवा
युञ्जानयोगिप्रत्यक्ष
२ मनःपर्याय
पातञ्जल
९ भुवनज्ञान,
ताराव्यूहज्ञान, ध्रुवगतिज्ञान आदि
२ परचित्तज्ञान २ परचित्तज्ञान,
चेतःपरिज्ञान
मनःपर्याय ज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त
१ देखो, योगसूत्र विभूतिपाद, सूत्र १६.२६ इत्यादि ।
२ देखो, कंदलीटीका सहित प्रशस्तपादभाष्य, पृ० १८७ । ३ देखो, मज्झिमनिकाय, सुत्त ६ ।
४ ' प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् - योगसूत्र. ३.१६ ।
५. देखो, अभिधम्मत्थसंगहो, ६.२४ ।
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