Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ जैन धर्म और दर्शन एक-सा करते हैं, जबकि उपाध्यायजी उक्त तीनों दोषों का उद्धार अपना सिद्धान्त भेद [ ६२] बतला कर ही करते हैं। वे ज्ञानबिन्दु में कर्मक्षय पद पर ही भार देकर कहते हैं कि वास्तव में तो सार्वज्य का कारण है कक्षय हो । कर्मक्षय को प्रधान मानने में उनका अभिप्राय यह है कि वही केवलज्ञान की उत्पत्ति का अव्यवहित कारण है। उन्होंने भावना को कारण नहीं माना, सो अप्राधान्य की दृष्टि से। वे स्पष्ट कहते हैं कि-भावना जो शुक्लध्यान का ही नामान्तर है वह केवलज्ञान की उत्पादक अवश्य है; पर कर्मक्षय के द्वारा हो । अतएव भावना केवलज्ञान का अव्यवहित कारण न होने से कर्मक्षय की अपेक्षा अप्रधान ही है। जिस युक्ति से उन्होंने भावनाकारणवाद का निरास किया है उसी युक्ति से उन्होंने अदृष्टकारणवाद का भी निरास । ६३ ] किया है। वे कहते हैं कि अगर योगजन्य अदृष्ट सार्वज्य का कारण हो तब भी वह कर्मरूप प्रतिबन्धक के नाश के सिवाय सार्वश्य पैदा नहीं कर सकता। ऐसी हालत में अदृष्ट की अपेक्षा कर्मक्षय ही केवलज्ञान की उत्पत्ति में प्रधान कारण सिद्ध होता है। शब्दकारणवाद का निरास उपाध्यायजी ने यही कहकर किया है किसहकारी कारण कैसे ही क्यों न हों, पर परोक्ष ज्ञान का जनक शब्द कभी उनके सहकार से अपरोक्ष ज्ञान का जनक नहीं बन सकता । सार्वत्य की उत्पत्ति का क्रम सब दर्शनों का समान ही है। परिभाषा भेद भी नहीं-सा है। इस बात की प्रतीति नीचे की गई तुलना से हो जाएगी-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80