Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 38
________________ ४१२ जैन धर्म और दर्शन जिसका पुराना इतिहास, नियुक्ति के अनुगम में तथा पुरानी वैदिक परंपरा आदि में भी मिलता है; उस पर अपनी पैनी नैयायिक दृष्टि से बहुत ही मार्मिक प्रकाश डाला है, और स्थापित किया है कि ये सब वाक्यार्थ बोध एक दीर्घ श्रुतोयोग रूप हैं जो मति उपयोग से जुदा है । उपाध्यायजी ने शानबिन्दु में जो वाक्यार्थ विचार संक्षेप में दरसाया है वही उन्होंने अपनी 'उपदेश रहस्य' नामक दूसरी कृति में विस्तार से किन्तु 'उपदेशपद' के साररूप से निरूपित किया है जो ज्ञान विन्दु के संस्कृत टिप्पण में उद्धृत किया गया है । (देखो ज्ञानबिन्दु, टिप्पण, पृ० ७४. पं० २७ से)। (४) अहिंसा का स्वरूप और विकास [२१] उपाध्यायजी ने चतुर्विध वाक्यार्थ का विचार करते समय ज्ञानबिन्दु में जैन परंपरा के एक मात्र और परम सिद्धान्त अहिंसा को लेकर, उत्सर्गअपवादभाव की जो जैन शास्त्रों में परापूर्व से चली श्रानेवाली चर्चा की है और जिसके उपपादन में उन्होंने अपने न्याय-मीमांसा आदि दर्शनान्तर के गंभीर अभ्यास का उपयोग किया है, उसको यथासंभव विशेष समझाने के लिए, ज्ञानबिन्दु टिप्पण में [ पृ० ७६ पं० ११ से ] जो विस्तृत अवतरणसंग्रह किया है उसके आधार पर, यहाँ अहिंसा संबंधी कुछ ऐतिहासिक तथा तात्त्विक मुद्दों पर प्रकाश डाला जाता है। अहिंसा का सिद्धांत आर्य परंपरा में बहुत ही प्राचीन है। और उसका श्रादर सभी आर्यशाखाओं में एक-सा रहा है । फिर भी प्रजाजीवन के विस्तार के साथ-साथ तथा विभिन्न धार्मिक परपराओं के विकास के साथ-साथ, उस सिद्धांत के विचार तथा व्यवहार में भी अनेकमुखी विकास हुआ देखा जाता है । अहिंसा विषयक विचार के मुख्य दो स्रोत प्राचीन काल से ही आर्य परंपरा में बहने लगे ऐसा जान पड़ता है। एक स्रोत तो मुख्यतया श्रमण जीवन के प्राश्रय से बहने लगा, जब कि दूसरा स्रोत ब्राह्मण परंपरा-चतुर्विध आश्रम-के जीवनविचार के सहारे प्रवाहित हुआ। अहिंसा के तात्त्विक विचार में उक्त दोनों स्रोतों में कोई मतभेद देखा नहीं जाता । पर उसके व्यावहारिक पहलू या जीवनगत उपयोग के बारे में उक्त दो स्रोतों में ही नहीं बल्कि प्रत्येक श्रमण एवं ब्राह्मण स्रोत की छोटी-बड़ी अवान्तर शाखाओं में भी, नाना प्रकार के मतभेद तथा आपसी विरोध देखे जाते हैं। तात्त्विक रूप से अहिंसा सब को एक-सी मान्य होने पर भी उस के व्यावहारिक उपयोग में तथा तदनुसारी व्याख्याओं में जो मतभेद और विरोध देखा जाता है उसका प्रधान कारण जीवनदृष्टि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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