Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 30
________________ • जैन धर्म और दर्शन जिससे उन्होंने आगम - श्रुतिप्रमाण का समावेश बौद्धों की तरह अनुमान में ही किया। इस तरह आगम को अतिरिक्त प्रमाण न मानने के विषय में बौद्ध और वैशेषिक दोनों दर्शन मूल में परस्पर विरुद्ध होते हुए भी अविरुद्ध सहोदर बन गए । जैन परंपरा की ज्ञानमीमांसा में उक्त दोनों विचारधाराएँ मौजूद हैं। मति और श्रुत की भिन्नता माननेवाले तथा उसकी रेखा स्थिर करनेवाले ऊपर वर्णन किये गए आगमिक तथा श्रागमानुसारी तार्किक इन दोनों प्रयत्नों के मूल में वे ही संस्कार हैं जो श्रागम को स्वतंत्र एवं अतिरिक्त प्रमाण माननेवाली प्राचीनतम विचारधारा के पोषक रहे हैं । श्रुत को मति से अलग न मानकर उसे उसी का एक प्रकार मात्र स्थापित करनेवाला दिवाकर श्री का तीसरा प्रयत्न आगम को अतिरिक्त प्रमाण न माननेवाली दूसरी विचारधारा के असर से अछूता नहीं है । इस तरह हम देख सकते हैं कि अपनी सहोदर अन्य दार्शनिक परं पराओं के बीच में ही जीवनधारण करनेवाली तथा फलने-फूलनेवाली जैन परंपरा ने किस तरह उक्त दोनों विचारधाराओं का अपने में कालक्रम से समावेश कर लिया । (२) श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मति [ १६ ] मति ज्ञान की चर्चा के प्रसङ्ग में श्रुतिनिश्रित और श्रुतनिश्रित भेद का प्रश्न भी विचारणीय है । श्रुतनिश्रित मति ज्ञान वह है जिसमें श्रुतज्ञानजन्य वासना के उद्बोध से विशेषता आती है । श्रश्रुतनिश्रित मति ज्ञान तो श्रुतज्ञानजन्य वासना के प्रबोध के सिवाय ही उत्पन्न होता है । अर्थात् जिस विषय में श्रुतनिश्रित मति ज्ञान होता है वह विषय पहले कभी उपलब्ध अवश्य १ देखो, प्रशस्तपादभाष्य पृ० ५७६, व्योमवती पृ० ५७७; कंदली ०२१३ । २ यद्यपि दिवाकरश्री ने अपनी बत्तीसी (निश्चय ० १६ ) में मति और श्रुत के भेद को स्थापित किया है फिर भी उन्होंने चिर प्रचलित मति श्रुत के भेद की सर्वथा गणना नहीं की है। उन्होंने न्यायावतार में श्रागम प्रमाण को स्वतन्त्र रूप से निर्दिष्ट किया है । जान पड़ता है इस जगह दिवाकरश्री ने प्राचीन परंपरा का अनुसरण किया और उक्त बत्तीसी में अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया | इस तरह दिवाकर श्री के ग्रंथों में आगम प्रमाण को स्वतंत्र अतिरिक्त मानने और न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरीय विचारधाराएँ देखी जाती हैं जिन का स्वीकार ज्ञानबिन्दु में उपाध्यायजी ने भी किया है । ३ देखो, ज्ञानबिन्दु टिप्पण पृ० ७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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