Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 27
________________ २६ ४०१ मति और भुत का भेद कहलाता है जो अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य रूप से जैन परंपरा में लोकोत्तर शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है, तथा जो जैनेतर वाङ्मय लौकिक शास्त्ररूप से कहा गया है। इस प्रयत्न में मति और श्रुत की भेदरेखा सुस्पष्ट है, क्योंकि इसमें श्रुतपद जैन परंपरा के प्राचीन एवं पवित्र माने जानेवाले शास्त्र मात्र से प्रधानतया संबन्ध रखता है, जैसा कि उस का सहोदर श्रुति पद वैदिक परंपरा के प्राचीन एवं पवित्र माने जाने वाले शास्त्रों से मुख्यतया संबन्ध रखता है। यह प्रयत्न आगमिक इसलिए है कि उसमें मुख्यतया आगमपरंपरा का ही अनुसरण है। 'अनुयोगद्वार' तथा 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' में पाया जानेवाला श्रत का वर्णन इसी प्रयत्न का फल है, जो बहुत पुराना जान पड़ता है। (देखो, अनुयोगद्वार सूत्र सू० ३ से और तत्वार्थ १.२०)। [१५, २६ से ] दूसरे प्रयत्न में मति और श्रत की भेदरेखा तो मान ही ली गई है; पर उस में जो कठिनाई देखी जाती है वह है भेदक रेखा का स्थान निश्चित करने की। पहले की अपेक्षा दुसरा प्रयत्न विशेष व्यापक है; क्योंकि पहले प्रयत्न के अनुसार श्रुत ज्ञान जब शब्द से ही संबन्ध रखता है तब दूसरे प्रयत्न में शब्दातीत ज्ञानविशेष को भी श्रुत मान लिया गया है। दूसरे प्रयत्न के सामने जब प्रश्न हुआ कि मति ज्ञान में भी कोई अंश सशब्द और कोई अंश अशब्द है, तब सशब्द और शब्दातीत माने जानेवाले श्रुत ज्ञान से उसका भेद कैसे समझना ? इसका जवाब दूसरे प्रयत्न ने अधिक गहराई में जाकर यह दिया कि असल में मतिलब्धि और श्रुतलब्धि तथा मत्युपयोग और श्रुतोपयोग परस्पर बिलकुल पृथक् हैं, भले ही वे दोनों शान सशब्द तथा अशब्द रूप से एक समान हों। दूसरे प्रयत्न के अनुसार दोनों ज्ञानों का पारस्परिक भेद लब्धि और प्रयोग के भेद की मान्यता पर ही अवलम्बित है; जो कि जैन तत्त्वज्ञान में चिर-प्रचलित रही है। अदर श्रुत और अनक्षर श्रुत रूप से जो श्रुत के भेद जैन वाङ्मय में हैं - वह इस दूसरे प्रयत्न का परिणाम है। 'आवश्यकनियुक्ति' (ग० १६) और 'नन्दीसूत्र' (सू० ३७ ) में जो 'अक्खर सन्नी सम्म' आदि चौदह श्रुतभेद सर्व प्रथम देखे जाते हैं और जो किसी प्राचीन दिगम्बरीय ग्रन्थ में हमारे देखने में नहीं आए, उनमें अक्षर और अनवर श्रुत ये दो भेद सर्व प्रथम ही आते हैं। बाकी के बारह भेद उन्हीं दो भेदों के आधार पर अपेक्षाविशेष से गिनाये हुए हैं। यहाँ तक कि प्रथम प्रयत्न के फल स्वरूप माना जानेवाला अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य श्रुत भी दूसरे प्रयत्न के फलस्वरूप मुख्य अक्षर और अनक्षर श्रुत में समा जाता है। यद्यपि अक्षरश्रुत आदि चौदह प्रकार के श्रुत का निर्देश 'आवश्यकनियुक्ति' तथा 'नन्दी' के पूर्ववत्ती ग्रन्थों में देखा नहीं जाता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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