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क्षयोपशम
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संभव काम करती रहती हैं | इतर सब दर्शनों की अपेक्षा उक्त विषय में जैन दर्शन के साथ योग दर्शन का अधिक साम्य है। योग दर्शन में क्लेशों की जो प्रसुत, तनु, विच्छिन्न और उदार – ये चार अवस्थाएँ बतलाई हैं बे जैन परिभाषा के अनुसार कर्म की सत्तागत, क्षायोपशमिक और श्रदयिक अवस्थाएँ हैं F श्रतएव खुद उपाध्यायजी ने पातञ्जलयोगसूत्रों के ऊपर की अपनी संक्षिप्त वृत्ति मैं पतञ्जलि और उसके भाष्यकार की कर्म विषयक विचारसरणी तथा परिभाषाओं के साथ जैन प्रक्रिया की तुलना को है, जो विशेष रूप से ज्ञातव्य है । ---देखी, योगदर्शन, यशो० २.४ |
यह सब होते हुए भी कर्म विषयक जैनेतर वर्णन और जैन वर्णन में खास अंतर भी नजर आता है। पहला तो यह कि जितना विस्तृत, जितना विशद और जितना पृथक्करणवाला वर्णन जैन ग्रंथों में है उतना विस्तृत, विशद और पृथक्करण युक्त कर्म वर्णन किसी अन्य जैनेतर साहित्य में नहीं है । दूसरा अंतर यह है कि जैन चिंतकों ने अमूर्त अध्यवसायों या परिणाकों की तीव्रता - मंदता तथा शुद्धि-शुद्धि के दुरूह तारतम्य को पौद्गलिक ' -- मूर्त कर्म रचनाओं के द्वारा व्यक्त करने का एवं समझाने का जो प्रयत्न किया है वह किसी अन्य चिंतक ने नहीं किया है । यही सच है कि जैन वाङ्मय में कर्म विषयक एक स्वतंत्र साहित्य राशि ही चिरकाल से विकसित है ।
१ न्यायसूत्र के व्याख्याकारों ने श्रदृष्ट के स्वरूप के संबन्ध में पूर्व पक्ष रूप से एक मत का निर्देश किया है । जिसमें उन्होंने कहा है कि कोई अदृष्ट को परमाणुगुण मानने वाले भी हैं — न्यायभाष्य ३. २. ६६ । वाचस्पति मिश्र ने उस मत को स्पष्टरूपेण जैनमत ( तात्पर्य० पृ० ५८४ ) कहा है । जयन्त ने ( न्यायमं० प्रमाण ० पृ० २५५ ) भी पौद्गलिक दृष्टवादी रूप से जैन मत को ही बतलाया है और फिर उन सभी व्याख्याकारों ने उस मत की समालोचना की है । जान पड़ता है कि न्यायसूत्र के किसी व्याख्याता ने मत को ठीक ठीक नहीं समझा है। जैन दर्शन मुख्य रूप से परिणाम हो मानता है । उसने पुद्गलों को जो कर्म- अदृष्ट कहा है वह उपचार है। जैन शास्त्रों में श्रासवजन्य या आसवजनक रूप से पौद्गलिक कर्म का जो विस्तृत विचार है और कर्म के साथ पुद्गल शब्द का जो बार-बार प्रयोग देखा जाता है उसी से वात्स्यायन आदि सभी व्याख्याकार भ्रान्ति या अधूरे ज्ञानवश खण्डन में प्रवृत्त हुए जान पड़ते हैं ।
दृष्टविषयक जैन
दृष्ट को श्रात्म
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