Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ रचनाशैली ३८६ भी स्थान नहीं दिया। फिर भी जिस युग, जिस विरासत और जिसप्रतिभा के वे धारक थे, वह सत्र अति प्राचीन पञ्चविध ज्ञान की चर्चा करने वाले उनके प्रस्तुत ज्ञानविन्दु ग्रन्थ में न आए यह असंभव है । अतएव हम आगे जाकर देखेंगे कि पहले के करीब दो हजार वर्ष के जैन साहित्य में पञ्चविभज्ञानसंबन्धी विचार क्षेत्र में जो कुछ सिद्ध हो चुका था वह तो करीब-करीब सब, प्रस्तुत ज्ञानविन्दु में या ही है, पर उस के अतिरिक्त ज्ञानसंबन्धी अनेक नए विचार भी, इस ज्ञानबिन्दु में सन्निविष्ट हुए हैं, जो पहले के किसी जैन ग्रन्थ में नहीं देखे जाते । एक तरह से प्रस्तुत ज्ञानत्रिन्दु विशेषावश्यकभाष्यगत पञ्चविधज्ञानवर्णन का नया परिष्कृत और नवीन दृष्टिसे सम्पन्न संस्करण है । ३. रचनाशैली प्रस्तुत ग्रन्थ ज्ञानविन्दु की रचनाशैली किस प्रकार की है इसे स्पष्ट समझने के लिए शास्त्रों की मुख्य-मुख्य शैलियों का संक्षिप्त परिचय श्रावश्यक है । सामान्य रूपसे दार्शनिक परंपरा में चार शैलियाँ प्रसिद्ध हैं - १. सूत्र शैली, २. कारिका शैली ३. व्याख्या शैली, और ४ वर्णन शैली । मूल रूपसे सूत्र शैली का उदाहरण है 'न्यायसूत्र' आदि । मूल रूपसे कारिका शैली का उदाहरण है 'सांख्यकारिका' आदि । गद्य-पद्य या उभय रूपमें जब किसी मूल ग्रन्थ पर व्याख्या रची जाती है तब वह है व्याख्या शैली जैसे 'भाष्य' वार्तिकादि' अन्थ जिस में स्वोपज्ञ या अन्योपज्ञ किसी मूल का अवलम्बन न हो; किंतु जिस मैं ग्रंथकार अपने प्रतिपाद्य विषय का स्वतन्त्र भाव से सीधे तौर पर वर्णन ही वर्णन करता जाता है और प्रसानुप्रसक्त अनेक मुख्य विषय संबंधी विषयों को उठाकर उनके निरूपण द्वारा मुख्य विषय के वर्णन को ही पुष्ट करता है वह है वर्णन या प्रकरण शैली । प्रस्तुत ग्रंथ की रचना, इस वर्णन शैली से की गई है । जैसे विद्यानन्द ने 'प्रमाणपरीक्षा' रची, जैसे मधुसूदन सरस्वती ने 'वेदान्तकल्पलतिका' और सदानन्द ने 'वेदान्तसार' वर्णन शैली से बनाए, वैसे ही उपाध्यायजी ने ज्ञाननिन्दु की रचना वर्णन शैली से की है। इस में अपने या किसी अन्य के रचित गद्य या पद्य रूप मूल का अवलम्बन नहीं है । अतएव समूचे रूप से ज्ञान बिन्दु किसी मूल ग्रन्थ की व्याख्या नहीं है। वह तो सीधे तौर से प्रतिपाद्य रूप से पसन्द किये गए ज्ञान और उसके पञ्चविध प्रकारों का निरूपण अपने ढंग से करता है। इस निरूपण में ग्रन्थकार ने अपनी योग्यता और मर्यादा के अनुसार मुख्य विषय से संबंध रखने वाले अनेक विषयों की चर्चा छानबीन के साथ की है जिसमें उन्होंने पक्ष या विपक्ष रूप से अनेक ग्रन्थकारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80