Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 17
________________ ३६१ शान की सामान्य चर्चा २. उसकी पूर्ण-अपूर्ण अवस्थाएं तथा उन अवस्थाओं के कारण और प्रतिबन्धक कर्म का विश्लेषण ३. ज्ञानावारक कर्म का स्वरूप ४. एक तत्व में 'श्रावृतानावृतत्व' के विरोध का परिहार ५. वेदान्तमत में 'श्रावृतानवृतत्व' की अनुपपत्ति ६. अपूर्णानगत तारतम्य तथा उसकी निवृत्ति का कारण ७.क्षयोपशम की प्रक्रिया । १. [१]' ग्रन्थकार ने शुरू ही में ज्ञानसामान्य का जैनसम्मत ऐसा स्परूप बतलाया है कि जो एक मात्र आत्मा का गुण है और जो स्व तथा पर का प्रकाशक है वह ज्ञान है। जैनसम्मत इस ज्ञानस्वरूप की दर्शनान्तरीय ज्ञानस्वरूप के साथ तुलना करते समय आर्यचिन्तकों की मुख्य दो विचारधाराएँ ध्यान में आती हैं। पहली धारा है सांख्य और वेदान्त में, और दूसरी है बौद्ध, न्याय आदि दर्शनों में । प्रथम धारा के अनुसार, ज्ञान गुण और चित् शक्ति इन दोनों का अाधार एक नहीं है, क्योंकि पुरुष और ब्रह्म ही उस में चेतन माना गया है; जब कि पुरुष और ब्रह्म से अतिरिक्त अन्तःकरण को ही उसमें ज्ञान का आधार माना गया है। इस तरह प्रथम धारा के अनुसार चेतना और ज्ञान दोनों भिन्नभिन्न आधारगत हैं। दूसरी धारा, चैतन्य और ज्ञान का श्राधार भिन्न-भिन्न न मान कर, उन दोनों को एक आधारगत अतएव कारण कार्यरूप मानती है। बौद्धदर्शन चित्त में, जिसे वह नाम भी कहता है, चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानता है। जब कि न्यायादि दर्शन क्षणिक चित्त के बजाय स्थिर आत्मा में ही चैतन्य और ज्ञान का अस्तित्व मानते हैं। जैन दर्शन दूसरी विचारधारा का अवलम्बी है। क्योंकि वह एक ही आत्मतत्त्व में कारण रूप से चेतना को और कार्य रूप से उस के ज्ञान पर्याय को मानता है। उपाध्यायजी ने उसी भाव ज्ञान को आत्मगुण-धर्म कह कर प्रकट किया है । २. उपाध्यायजी ने फिर बतलाया है कि ज्ञान पूर्ण भी होता है और अपूर्ण भी। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब श्रारमा चेतनस्वभाव है तब उस में ज्ञान की कभी अपूर्णता और कभी पूर्णता क्यों ? इसका उत्तर देते समय उपाध्याय जी ने कर्मस्वभाव का विश्लेषण किया है। उन्होंने कहा है कि [२] अात्मा पर एक ऐसा भी आवरण है जो चेतना-शक्ति को पूर्णरूप में कार्य करने नहीं १ इस तरह चतुष्कोण कोष्ठक में दिये गए ये अंक ज्ञानबिन्दु के मूल ग्रन्थ की कंडिका के सूचक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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