Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 11
________________ २५ शानबिन्दुपरिचय : ३८५ (७) सातवों भूमिका भट्ट अकलंक की है, जो विक्रमीय आठवीं शताब्दी के विद्वान् हैं । ज्ञान विचार के विकास क्षेत्र में भट्टारक अकलंक का प्रयत्न बहुमुखी है । इस बारे में उनके तीन प्रयत्न विशेष उल्लेख योग्य हैं। पहला प्रयत्न तत्वार्थसूत्रावलम्बी होने से प्रधानतया पराश्रित है । दूसरा प्रयत्न सिद्धसेनीय 'न्यायावतार' का प्रतिबिम्बग्राही कहा जा सकता है, फिर भी उसमें उनकी विशिष्ट स्वतन्त्रता स्पष्ट है। तीसरा प्रयत्न 'लघीयस्त्रय' और खासकर 'प्रमाणसंह' में है, जिसे उनकी एकमात्र निजी सूझ कहना ठीक है | उमास्वाति ने, मीमांसक आदि सम्मत अनेक प्रमाणों का समावेश मति और श्रुत में होता है--ऐसा सामान्य ही कथन किया था; और पूज्यपाद ने भी वैसा ही सामान्य कथन किया था। परन्तु, अकलंक ने उससे आगे बढ़कर विशेष विश्लेषण के द्वारा 'राजवात्तिक में यह बतलाया कि दर्शनान्तरीय वे सब प्रमाण, किस तरह अनवर और अक्षरश्रत में समाविष्ट हो सकते हैं । 'राजवार्तिक' सूत्रावलम्बी होने से उसमें इतना ही विशदीकरण पर्याप्त है; पर उनको जब धर्मकीर्ति के 'प्रमाणविनिश्चय का अनुकरण करने वाला स्वतन्त्र न्यायविनिश्चय' ग्रंथ बनाना पड़ा, तब उन्हें परार्थानुमान तथा वादगोष्ठो को लक्ष्य में रख कर विचार करना पड़ा । उस समय उन्होंने सिद्धसेन स्वीकृत वैशेषिक-सांख्यसम्मत त्रिविध प्रमाण विभाग की प्रणाली का अवलम्बन करके अपने सारे विचार 'न्यायविनिश्चय' में निबद्ध किये । एक तरह से वह न्यायविनिश्चय' सिद्धसेनीय न्यायावतार' का स्वतन्त्र विस्तृत विशदीकरण ही केवल नहीं है बल्कि अनेक अंशो में पूरक भी है। इस तरह जैन परंपरा में न्यायावतार के सर्व प्रथम समर्थक अकलंक ही हैं। इतना होने पर भी, अकलंक के सामने कुछ प्रश्न ऐसे थे जो उनसे जबाब चाहते थे । पहला प्रश्न यह था, कि जब आप मीमांसकादिसम्मत अनुमान प्रभृति विविध प्रमाणों का श्रत में समावेश करते हैं, तब उमास्वाति के इस कथन के साथ विरोध आता है, कि वे प्रमाण मति और श्रुत दोनों में समाविष्ट होते हैं। दूसरा प्रश्न उनके सामने यह था, कि मति के पर्याय रूप से जो स्मृति, संज्ञा, १ देखो, तत्त्वार्थ भाष्य, १.१२ । २ देखो, सर्वार्थसिद्धि, १.१० । ३ देखो, राजवार्तिक, १.२०.१५ । ४- न्यायविनिश्चय को अकलंक ने तीन प्रस्तावों में विभक्त किया-~-प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन । इस से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि उन को प्रमाण के ये तीन भेद मुख्यतया न्यायविनिश्चय की रचना के समय इष्ट होंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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