Book Title: Gyanbindu Parichaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 12
________________ ३८६ जैन धर्म और दर्शन चिन्ता जैसे शब्द नियुक्तिकाल से प्रचलित हैं और जिन को उमास्वाति ने भी मूल सूत्र में संग्रहीत किया है, उनका कोई विशिष्ट तात्पर्य किंवा उपयोग है या नहीं ? तदतिरिक्त उन के सामने खास प्रश्न यह भी था, कि जब सभी जैनाचार्य अपने प्राचीन पञ्चविध ज्ञान विभाग में दर्शनान्तरसम्मत प्रमाणों का तथा उनके नामों का समावेश करते आए हैं, तब क्या जैन परंपरा में भी प्रमाणों की कोई दार्शनिक परिभाषाएँ या दार्शनिक लक्षण हैं या नहीं ?; अगर हैं तो वे क्या हैं ? और आप यह भी बतलाइए कि वे सब प्रमाणलक्षण या प्रमाणपरिभाषाएँ सिर्फ दर्शनान्तर से उधार ली हुई हैं या प्राचीन जैन ग्रंथों में उनका कोई मूल भी है ? इसके सिवाय अकलंक को एक बड़ा भारी प्रश्न यह भी परेशान कर रहा जान पड़ता है, कि तुम जैन तार्किकों की सारी प्रमाणप्रणाली कोई स्वतन्त्र स्थान रखती है या नहीं ? अगर वह स्वतन्त्र स्थान रखती है तो उसका सर्वांगीण निरूपण कीजिए । इन तथा ऐसे ही दूसरे प्रश्नों का जवाब अकलंक ने थोड़े में 'लघीयस्त्रय' में दिया है, पर 'प्रमाणसंग्रह' में वह बहुत स्पष्ट है । जैनतार्किकों के सामने दर्शनान्तर की दृष्टि से उपस्थित होने वाली सब समस्याओं का सुलझाव अकलंक ने सर्व प्रथम स्वतन्त्र भाव से किया जान पड़ता है। इसलिए उनका वह प्रयन्न बिलकुल मौलिक है । ऊपर के संक्षिप्त वर्णन से यह साफ जाना जा सकता है कि-आठवी-नवीं शताब्दी तक में जैन परंपरा ने ज्ञान संबन्धी विचार क्षेत्र में स्वदर्शनाभ्यास के मार्ग से और दर्शनान्तराभ्यास के मार्ग से किस-किस प्रकार विकास प्राप्त किया । अब तक में दर्शनान्तरीय आवश्यक परिभाषाओं का जैन परंपरा में आत्मसात्. करण तथा नवीन स्वपरिभाषाओं का निर्माण पर्याप्त रूप से हो चुका था। उसमें जल्प श्रादि कथा के द्वारा परमतों का निरसन भी ठीक-ठीक हो चुका था और पूर्वकाल में नहीं चर्चित ऐसे अनेक नवीन प्रमेयों की चर्चा भी हो चुकी थी। इस पक्की दार्शनिक भूमिका के ऊपर अगले हजार वर्षों में जैन तार्किकों ने बहुत बड़े-बड़े चर्चाजटिल ग्रंथ रचे जिनका इतिहास यहाँ प्रस्तुत नहीं है। फिर भी प्रस्तुत ज्ञानविन्दु विषयक उपाध्यायजी का प्रयत्न ठीक-टीक समझा जा सके, एतदर्थ बीच के समय के जैन ताकिकों की प्रवृत्ति की दिशा संक्षेप में जानना जरूरी है। ___आठवीं-नवीं शताब्दी के बाद ज्ञान के प्रदेश में मुख्यतया दो दिशाओं में प्रयत्न देखा जाता है । एक प्रयत्न ऐसा है जो क्षमाश्रमण जिनभद्र के द्वारा विकसित भूमिका का आश्रय लेकर चलता है, जो कि आचार्य हरिभद्र की 'धर्मसंग्रहणी' आदि कृतियों में देखा जाता है। दूसरा प्रयत्न अकलंक के द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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