Book Title: Gyan Lochan evam Bahubali Stotram
Author(s): Vadirajkavi, Rajendra Jain, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 6
________________ भावार्थ - हे भगवन् ! जब यह जीव मनुष्य शरीर को प्राप्त करके यदि आपके नाम मंत्र का स्मरण करता उस समय उस जीव के अस्थि रूपी वृक्ष शरीर का भला नहीं होता है। आपकी भक्ति करने वाला जीव इस शरीर को त्याग तपस्या के द्वारा सूखा देता है। जिससे अन्य नये शरीरों की परंपरा समाप्त हो जाती है । पुरांचितं नो तव पादयुग्मं या त्रिशुद्धयाऽखिलसौख्यदायि । परालयातिथ्यपरैधितत्व पात्रं हि गात्रं वरिवर्तिमेऽद्य ।। 33 ।। अर्थ :- हे भगवन् ! मेरे द्वारा मन, वचन एवं काय की शुद्धि पूर्वक सम्पूर्ण सुखों को देने वाले आपके चरण युगल पहले कभी नहीं पूजे गये, इसलिए ही आज मेरा शरीर दूसरों के घर का अतिथि दूसरों के अन्न को खाकर वृद्धि को प्राप्त करने का पात्र हुआ है अर्थात् मैं दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ हूँ। -नाटयं कृतं भूरिभवैरनंतं कालं मया नाथ ! विचित्रवेषैः । हृष्टोऽसि दृष्ट्वा यदि देहि देयं तदन्यथा चेदिह तद्धि वार्यम् ।। 40 ।। अर्थ :- हे नाथ ! नाना भेषों को धारण करके अनंत भवों के द्वारा अनंतकाल में मेरे द्वारा नाटक किया गया। उस नाटक को देखकर हे स्वामिन् ! यदि आप प्रसन्न हुए हों तो देने योग्य पुरुस्कार प्रदान कीजिए। इसके विपरीत मेरा यह भ्रमण यदि आपको अच्छा नहीं लगा हो तो निश्चित रूप से समाप्त कर दीजिये । साथ ही बाहुबलिस्तोत्र का भी प्रकाशन किया जा रहा है वह भी अपने अनुपम रचना है तथा इसका भी प्रथम बार अनुवाद सहित प्रकाशन कर रहे । कृति के संयोजन में ब्र. अनिल जी का भी सहयोग प्राप्त हुआ है । अत: मैं उनका आभारी हूँ । ब्र. सुरेन्द्र जी, सरस जी ने प्रकाशन में विशेष सहयोग देकर श्रुत देवता की महती सेवा की। प्रूफ और अज्ञानवश त्रुटियाँ होना संभव है । कृपया उन्हें संशोधित कर पढ़े एवं हो सके तो सूचित करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only ब्र. विनोद जैन www.jainelibrary.org

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