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1-2. तुला के समान प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम रूप प्रमाण और नय के प्रकाश में जिनमें दोष और आवरण नहीं है और जिनके ज्ञान की प्रकर्षता
और अतिशय से ज्ञान का तारतम्य हीनाधिकपना विश्रान्त हो जाता है और इस जगत में जिनका ध्यान करके लोग दूसरों का ध्यान नहीं करते, जिनकी स्तुति करके दूसरों की स्तुति नहीं करते, जिनको नमस्कार करके दूसरों को नमस्कार नहीं करते, जिनके आगम को सुनकर लोग अन्य आगमाभासों को नहीं सुनते ऐसे उन पार्श्वनाथ स्वामी की मैं स्तुति करता हूँ अर्थात् स्तवन करता हूँ।
3- हे जिनेश ! आपने सम्पूर्ण राज्य को तृण के समान तुच्छ मानकर विशुद्ध भावों के द्वारा निर्वेद भाव को प्राप्त होकर और उपयोग से ध्यान की एकाग्रता के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त किया।
4- जैसे इस संसार में स्वंयबर में वर को वरण करने वाली कन्या के द्वारा सम्पूर्ण राजाओं के समुह को छोड़कर (तिरस्कृत कर) इच्छित वर को वरा जाता है। अर्थात् कन्या अपने इच्छित वर को वरण करती है। वैसे ही मोक्षरूपी लक्ष्मी वृहस्पति, बुद्ध, कपिल और रुद्रादि को छोड़कर निरन्तर आपका ही वरण करती
5- दूसरे आप्ताभासों के द्वारा प्रतिपादित किये गये खोटे शासन अर्थात् खोटा है अन्त जिनका ऐसे (कुशासन) संसार के कारण है किन्तु आपके द्वारा वे ही कुशासन-सुशासन किये जाते हैं। जैसे तीक्ष्ण रस प्रयोग से लोहे को सोना बनाया जाता है उसी प्रकार हे भगवन् ! कुवादियों के एकान्तवादी कथन को आप स्याद्वाद नय से संस्कृत करके, सम्यग् अनेकान्त बना देते हो । यह आपके शासन का अद्भुत अपूर्व अतिशय है।
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