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31- हे पार्श्वनाथ भगवन् ! अनादि अविद्या अज्ञान रूपी रोग से जिसका अंग यानि आत्मा मूर्छित है। काम वासना और तीव्र क्रोध रूपी अग्नि से तपा मोह मिथ्यात्व रूप विशाल जहरीले सर्प से काटे गये मुझको स्याद्वाद रूपी अमृत महौषध के द्वारा अविद्या रूपी रोग से रक्षा करें।
32- हिंसा, अदया, अक्षमा, व्यसन, प्रमाद, कषाय, मिथ्यात्व कुबुद्धि के पात्र, व्रतों से रहित गुणावलोकन से हीन मुझको हे भगवन् ! आपके बिना संसार में कौन रक्षा करने में समर्थ है अर्थात् कोई नहीं है।
33- हे भगवन् ! मेरे द्वारा मन, वचन एवं काय की शुद्धि पूर्वक सम्पूर्ण सुखों को देने वाले आपके चरण युगल पहले कभी नहीं पूजे गये, इसलिए ही आज मेरा शरीर दूसरों के घर का अतिथि दूसरों के अन्न को खाकर वृद्धि को प्राप्त करने का पात्र हुआ है अर्थात् मैं दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ हूँ।
34- क्रोध रूपी सिंह के द्वारा पकडा गया है कण्ठ जिसका, मान के द्वारा पीस दिया गया शरीर जिसका, मायारूपी दुष्ट पत्नी के द्वारा पकडी गई है चोटी जिसकी तथा लोभ रूपी कीचड़ के समूह में डूबी हुई है काय जिसकी ऐसा मैं हूँ। हे भगवन् ! इन कषायों के द्वारा मारा गया हूँ।
35- हे भगवन् ! बालपन जवानी और वृद्धावस्था इन तीनों दशाओं में मेरे द्वारा कभी भी कुछ पुण्य कार्य नहीं किया गया। ऐसा जानता हुआ भी मैं उसी भांति पुण्य कार्य से रहित समय व्यतीत कर रहा हूँ। जाग्रत अथवा सोता हुआ भी मैं क्या करूँ ?
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