Book Title: Gyan Lochan evam Bahubali Stotram
Author(s): Vadirajkavi, Rajendra Jain, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 26
________________ 41- हे भगवन् ! मेरी यह काम विलाश में श्रृद्धालुता है। पाप समूह में मेरी कृपालुता है। शान्त रस के प्रसंग में निद्रालुता और आत्म विचार के मार्ग में तंद्रालुता है। 42- चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करके भाग्य के वश से हे भगवन् ! आपके वचन रूपी अच्छे पदार्थ जिसके अन्दर हैं। ऐसी आपकी वचन रूपी पुरी को प्राप्त करके तथा दूसरे मिथ्यादृष्टियों को अगम्य नय रूपी रत्नों की शाल स्वरूप आपकी वचन रूपी पुरी में निवास करने वाले भव्यों को कैसे दुख हो सकता है ? 43- हिताहित रूप पदार्थों के विषय में हित की, चाह चैतन्य स्वरूप आत्मा के धर्म स्वभाव के विचार से रहित अजाकृपाणी न्याय को धारण किये हये के समान हे जिननाथ ! मेरी बुद्धि मारी गई है। 44- हे भगवन् ! यदि आप में अनन्तदर्शन हैं तो आज मुझे वही अणुमात्र प्रदान कीजिये और ज्ञान सुख वीर्य यदि अधिक है तो इनको भी प्रदान करें क्योंकि हे जिन! आप से दूरवर्ती कौन है अर्थात् कोई नहीं है। 45- स्वस्थ बाह्य इन्द्रियों के बिना नमस्कारदि नही हो पाते तथा स्वस्थ इन्द्रियों से रहित पुण्य रूप धर्म नहीं होता। धर्म के बिना समीचीन पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। हे विभो ! इस प्रकार प्रतिदिन आपके चरण कमलों कर दर्शन अवलोकन करना चाहता हूँ। इसलिये हे करुणानिधि ! शीघ्र मेरी दृष्टि को निर्मल कीजिये। [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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