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36- हे नाथ ! न मैंने दान दिया, न तीर्थ यात्रा की, न तप तपा, न जप किया, न आत्मा के स्वरूप का विचार किया, न पूज्य पंच परमेष्ठियों की पूजा की तथा निज और पर का उपकार करने वाले शास्त्रों का श्रवण नहीं किया। हा! कष्ट है दुर्लभ मनुष्य जन्म को व्यर्थ ही खो दिया।
37- हे भगवन् ! भोग भोगने की बुद्धि से श्वान की वृत्ति द्वारा राजाओं की चापलूसी के ध्यान को धारण करने वाले मेरे द्वारा पृथ्वी पर चिरकाल तक भ्रमण किया गया। हे स्वामिन् ! मेरा यह कार्य अज्ञान के वश से सोने के घडे को छोड़कर पीतल के घड़े को ग्रहण करने के समान है।
38- हे भगवन् ! सिंह, हाथी, युद्ध, समुद्र, जंगल की अग्नि ज्वरादि रोगों से उत्पन्न बडे भय आप के नाम मंत्र के प्रभाव से नष्ट हो जाते है। जिस प्रकार सूर्य के उदय से अंधकार नष्ट हो जाता है।
39- हे भगवन् ! आपके स्मरण से संसार शरीर भोगों से तथा मित्र, स्त्री वर्ग से अरुचि होती है। किन्तु मोहनीय आदि कर्मों का उदय आपके स्मरण से चित्त को आकृष्ट करके उसी ही स्थान को ले जाते हैं अर्थात् संसार शरीर भोगों में फंसा देते हैं।
__ भावार्थ - आपके स्मरण में लगे चित्त को मोहनीय कर्मोदय पुन: संसार शरीर भोगों में फंसा देता है। यह कैसी विचित्रता है ? ।
40- हे नाथ! नाना भेषों को धारण करके अनंत भवों के द्वारा अनंतकाल में मेरे द्वारा नाटक किया गया। उस नाटक को देखकर हे स्वामिन् ! यदि आप प्रसन्न हुए हों तो देने योग्य पुरुस्कार प्रदान कीजिए। इसके विपरीत मेरा यह भ्रमण यदि आपको अच्छा नहीं लगा हो तो निश्चित रूप से समाप्त कर दीजिये।
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