Book Title: Gyan Lochan evam Bahubali Stotram
Author(s): Vadirajkavi, Rajendra Jain, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 16
________________ 16- हेभगवन् ! स्त्रियों की पद्धति-मार्गको छोड़कर यह अशोकवृक्ष अपने स्थान में ही स्पष्ट रूप से अशोक अर्थात् शोक रहित हो रहा है। अपने स्वामी को निविण्य-वीतरागदेखकर यह अशोक वृक्ष विराग-लालिमासे रहित हो गया यह भृत्य गति ऐसी ही है कि सेवक स्वामी का अनुकरण करता ही है। 17- हे जिनेन्द्र भगवान् ! सर्वप्रथम जिन भगवान की पूजा करने की ईर्ष्या से ही मानो आकाश से पहले फूलों की पंक्ति गिरती हैं। सो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आप जिनेन्द्र के द्वारा जीता गया कामदेव अपने वाणों की ही पंक्ति को आपकी समवशरण सभा में छोड़ रहा हो। 18- हे भगवन् ! आपकी यह दिव्य ध्वनि आपसे अक्रम अवर्ण तथा एक रूप से ही प्रगट होती है किन्तु वर्षा के समान पृथ्वी पर नाना स्वभाव हो जाती है। यह नाना स्वभाव आपका नहीं है। किन्तु देवों के द्वारा यह ध्वनि अक्षरात्मक होकर पृथ्वी पर जयवन्त वर्तती है। 19- हे भगवन् ! आपका ये चामरों का समूह आप जिन को बार बार नमस्कार करते हुए मुनिराज रूपी राजहंसों के समान, शुक्ल लेश्या की पुत्री के सदृश ज्ञान तथा समुद्र के फेन के समान मुक्ति रूपी स्त्री की हँसी के समान सुशोभित होते हैं। 20- आपका पीठत्रय व्यवहार नामक और आपका छत्रत्रय निश्चय नामक रत्नत्रय मार्ग को दर्शाते हुए की तरह प्रतीत होता है। [8] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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