Book Title: Gyan Lochan evam Bahubali Stotram
Author(s): Vadirajkavi, Rajendra Jain, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 14
________________ 11- स्वर्ण पाषाण के समान स्वभाव से स्वच्छ निर्मल यह आत्मा शरीर में स्थित होता हुआ कर्म कलंक रूपी कीचड़ के द्वारा समल हो रहा है । हे भगवन् ! आपके द्वारा कही गयी तप रूपी अग्नि में भव्य जीव उस आत्मा को शुद्ध करते हैं। इसलिये हे जिन ! आप मुक्ति को देने वाले हो। 12- परमात्मा के स्वरूप को नहीं जानने वाले अज्ञानी जन, शत्रु, मित्र, शस्त्र में बढ़ रहा है द्वेष और अनुराग जिनको और जो हिंसा उपकार परस्त्री में आसक्त हैं ऐसे मूर्ख प्राणी व्यामोहभाव - मिथ्यात्य भाव को कैसे प्राप्त नहीं करते हैं ? अर्थात् करते ही हैं। 13- हे ईश! जो जीभ आपके स्तुति के रस को जानती है वही वास्तव में रसज्ञ- रस के स्वाद को जानने वाली है। जो आपके वचनों का श्रवण करते है वह ही कर्ण हैं। वह ही उत्तमांग है जो आपके चरण युगल में नम्रीभूत होकर नमस्कार करता है और बुद्धि वही हैं, जो आपका ध्यान करती है, मन वही है जो आपको मानता है। 14- इस जगत में फूल पत्तों से रहित यह अस्थि रूप वृक्ष चमड़े (त्वचा) से आच्छादित है और अज्ञानता आदि मेघो के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुआ है और आत्मा रूपी पक्षी इस अस्थि रूपी वृक्ष के अग्रभाग पर यदि हे भगवन् ! आपके नाम मंत्र बोले तो इसका भला नहीं है। भावार्थ - हे भगवन् ! जब यह जीव मनुष्य शरीर को प्राप्त करके यदि आपके नाम मंत्र का स्मरण करता उस समय उस जीव के अस्थि रूपी वृक्ष शरीर का भला नहीं होता है। आपकी भक्ति करने वाला जीव इस शरीर को त्याग तपस्या के द्वारा सूखा देता है। जिससे अन्य नये शरीरों की परंपरा समाप्त हो जाती है। 15- हे भगवन् ! आप में अति श्रद्धावान प्राणी इस लोक में शीघ्र ही मानसिक पीड़ा से रहित हो जाता है। अत: अन्य चिंताओं के करने से क्या प्रयोजन है ? वह भले ही धनवान, निर्धन, रोगी अथवा निरोग हो उसे आपकी वाणी से मन का समाधान करना चाहिए। [6] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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