Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

Previous | Next

Page 27
________________ गुरुवाणी-१ धर्म - जीवनशुद्धि बालक था यह वैभव दूसरों को सौंप दिया गया। तुझे अब मन्त्री पद नहीं मिलेगा, क्योंकि तू पढ़ा-लिखा नहीं है, इसलिए मन्त्री पद मिलने का प्रश्न ही नहीं है।' कपिल कहता है-'मैं पढूँगा।'- माता कहती है'तुझे यहाँ कोई पढ़ायेगा नहीं और भावी भय से नया मन्त्री तुझे पढ़ने भी नहीं देगा।' कपिल कहता है- तो क्या किया जाए? माता कहती है-'यहाँ से थोड़ी दूर पर एक नगर में तेरे पिता के मित्र रहते हैं, उनके पास जाकर पढ़े तो काम बन सकता है।' कपिल को एक ही लगन लगी थी कि माता को कैसे सुखी किया जाए? यदि इसका मन प्रसन्न होता है तो मैं जहाँ कहीं भी पढ़ने के लिए जाने को तैयार हूँ। सभी प्रकार की सूचना प्राप्त कर वह कपिल घर से निकल पड़ता है। उसके हृदय में केवल मातृभक्ति ही भरी हुई है। हम तो अकेली क्रिया को ही धर्म समझ कर करते हैं। धर्म में सब सद्गुणों का समावेश हो जाता है मातृभक्ति और पितृभक्ति भी उसमें आ जाती है। श्री हरिभद्रसूरि जी कहते हैं-त्रिकालं चास्य पूजनम् अर्थात् माता-पिता की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए। केसर की कटोरी लेकर पूजा करने की नहीं है परन्तु त्रिकाल माता-पिता का चरणस्पर्श करना, उनको प्रेम से भोजन करवाना, उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखना आदि। हमने तो धर्म को मंदिर और उपाश्रय तक ही सीमित कर दिया है। घर में आकर चाहे हम माता-पिता का तिरस्कार करें, दुकान पर बैठकर अनेक लोगों को ठगें, क्या इसको धर्म मान सकते हैं? कपिल के पास में मातृभक्ति के अतिरिक्त कोई अन्य धर्म नहीं था, अतः माँ का आर्शीवाद लेकर वह निकलता है और पिता के मित्र के ग्राम में पहुँच जाता है। उनके समक्ष अपनी सारी स्थिति का वर्णन करता है। पंडित कहता है- 'भाई! मैं निर्धन हूँ, तेरे भोजन की व्यवस्था हो जाए तो मैं तुझे पढ़ा सकता हूँ। तेरे भोजन की व्यवस्था तो अन्य स्थान पर करनी ही होगी।' यह सोचकर पंडितजी किसी सेठ

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142