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अन्तर्दर्शन
श्रावण सुदि पूर्णिमा
अक्षय अन्तर्वैभव....
आज मनुष्य सजावट के पीछे लाखों रुपये खर्च कर रहा है किन्तु सन्तप्त दिल वाले किसी भाई को सांत्वना देने के लिए एक कौड़ी भी खर्च करने को तैयार नहीं है। मनुष्य का यह बाहरी वैभव ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसकी भूख/तृष्णा भी बढ़ती जाती है। उसको स्वयं का जीवन भी अपूर्ण लगता है। जबकि जो मनुष्य स्वयं के अन्तर्वैभव की बढ़ोतरी करता है उसका जीवन बहुत सुखमय बन जाता है। नष्ट होगा इसकी कल्पना भी नहीं होती है। अन्तर्वैभव का सुख ऐसा है कि ज्योंज्यों हम दूसरे को सुख प्रदान करेंगे त्यों-त्यों हमारा सुख बढ़ता जाएगा। जबकि बाहरी वैभव का सुख ऐसा कमजोर है कि ज्यों-ज्यों आप खर्च करोगे त्यों-त्यों खत्म होता जाएगा। कभी कदाचित् बढ़ोतरी भी होगी तो भी वह अन्तर्वैभव के समान नहीं। तुम सामने वाले व्यक्ति को जितना अधिक प्रेम दोगे उतनी ही अधिक तुम्हारे में प्रेम की वृद्धि होती चली जाएगी। बाहर के पदार्थों की तुम ज्यों-ज्यों वृद्धि और संचय करते रहोगे त्यों-त्यों तुम अपूर्ण ही बनते जाओगे। जबकि अन्तर्वैभव को ज्यों-ज्यों बांटोगे तुम पूर्ण बनते जाओगे। अनुकम्पा ....
___ सम्यक्त्व की मुख्य पहचान है अनुकम्पा । अनुकम्पा अर्थात् दया नहीं किन्तु दूसरे के दुःख दर्द को देखकर मन आकुल-व्याकुल बन जाए
और उसका हृदय कम्पित हो जाए उसे अनुकम्पा कहते हैं। अनुकम्पा का स्तर दया से ऊपर है। भगवान् के हृदय में अनुकम्पा लूंस ढूंस कर भरी हुई होती है। बस, ध्यान में बैठते ही उनके दिमाग में एक ही विचार घूमता