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गुरुवाणी-१
अन्तदर्शन उत्तम से उत्तम मिष्ठान भी उदर में जाने के साथ ही घृणित पदार्थ के रूप में परिणत हो जाता है। बाहर से दिखाई देने वाले इस सुन्दर शरीर में कितने घृणित पदार्थ भरे हुए हैं। महापुरुष कहते हैं - यह शरीर प्रेम से हाथ फेरने योग्य नहीं, पोषण करने योग्य भी नहीं किन्तु शोषण करने के लिए है। हम रात दिन इसकी पूजा में ही पड़े हुए हैं। जबकि शास्त्रकार कहते हैं - देह की नहीं, देव की/आत्मा की पूजा करो। मनुष्य को समस्त प्रकार का वैभव मिलने पर वह यह मान बैठता है कि मेरा जन्म सफल हुआ। किन्तु, महापुरुष कहते हैं - वह जन्म सफल नहीं क्योंकि धर्माराधन के बिना वह निष्फल है। परमात्मा के रूप-सौन्दर्य के अतिरिक्त जगत् में किसी का अद्भुत रूप नहीं है। इस शरीर में से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्ररूपी तीन रत्न निकालने हैं। जैसे समुद्र में अगाध पानी है वैसे ही इस आत्मा में अखूट खजाना भरा हुआ है। दो रोग....
भव रोग और भाव रोग ये दोनों मोटे रोग हमें घेरे हुए हैं। हमारे चित्त के परिणाम इतने कलुषित हैं कि राग, द्वेष और मोह के कारण चित्त अत्यन्त व्याकुल बना हुआ है। जब तक ये भाव रोग हैं तब तक भव रोग भी रहेगा। धर्म रूपी जवाहरात खरीदने के लिए गुणों के वैभव की अपेक्षा है। यदि गुण रूपी वैभव हमारे पास नहीं है तो धर्म रूपी जवाहरात भी हम नहीं खरीद सकते।
मनुष्य सर्वदा अपने नाम को अमर बनाने की इच्छा रखता है। नाम को नहीं अपने काम को अमर बनाना सीखो।ऐसा सत्कार्य करो कि तुम्हारा काम अमर बन जाए।
जीवन की सिद्धिधर्मोपार्जन में है, अर्थोपार्जन में नहीं।खाने-पीने का काम तो यह जीव प्रत्येक योनि में करता आया है। इस जीवन में भी उन्ही कार्यों की पुनरावृत्ति होगी तो संसार के फेरे कहाँ से टलेंगे।जब धर्म का महत्त्व समझ में आता है तभी यह जीवन उच्च कोटि का बन जाता है।