Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 131
________________ परम की यात्रा भादवा वदि५ बहिरात्मा .... आत्मा तीन प्रकार की है - बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा। जिसकी आत्मा बाहर है अर्थात् जिसने अपनी आत्मा को पहचाना नहीं है, केवल जो 'मैं' से ही प्रसन्न हो, धन ही मानो जिसकी आत्मा हो, कंचन, कामिनी, कुटुम्ब, शरीर और कीर्ति ही जिसकी आत्मा हो उसे बहिरात्मा कहते हैं। उसका सम्बन्ध केवल बाह्य पदार्थों से होता है । शरीर की सजावट में ही जिसकी सारी जिन्दगी व्यतीत हो जाती हो, तनिक भी वजन घटने पर वह तत्काल ही कहेगा मैं सूखकर कांटा हो गया हूँ अर्थात् मैं हूँ तब तक यह शरीर और आत्मा है, वह सम्पत्ति, पत्नी आदि को ही मैं के रूप में स्वीकार करता है। अधिकांशतः जगत् के जीव बहिरात्म दशा में ही जीते हैं। बाहर के पदार्थों में बढ़ोतरी अर्थात् अत्यन्त प्रसन्नता और उन पदार्थों में घटोतरी होने पर चिल्लाकर वह रोने लग जाता है। क्योंकि 'मैं' को ही वह आत्मा मानता है। एक सेठ थे। उनका बहुत बड़ा व्यापार था। दस लाख का मुनाफा होने वाला था। रात में ही खबर लगी कि भाव घट गये हैं। तब भी पाँच लाख का तो फायदा होने वाला था, फिर भी उस सेठ को आघात लगा और वह एकदम जोर से पुकारता हुआ चिल्लाने लगा कि, मैं तो बरबाद हो गया-बरबाद हो गया। आसपास के लोग इकट्ठे हो गये। दरवाजा खटखटाया। लोगों ने सेठानी से पूछा - सेठ जोर-जोर से क्यों चिल्ला रहे हैं। सेठानी कहती है - इनको दस लाख का मुनाफा होने वाला था, इसके स्थान पर पाँच लाख का हुआ इसीलिए वे पागल होकर चिल्ला रहे हैं। विचार करिए - सेठ की आत्मा कहाँ थी? धन में ही न।

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