Book Title: Guru Vani Part 01
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 126
________________ १०४ अन्तदर्शन गुरुवाणी-१ रहता है कि मैं इस विश्व के जीवों को दुःखों से कैसे मुक्त करूं? उनका हित कैसे करूं? बस, यही एक लगन लगी रहती है। इसीलिए तो विश्व के समस्त प्राणियों के वे पूज्य बन गए हैं। धर्म का प्राण करुणा है। जब सङ्गम देव ने भगवान् महावीर को छ:-छः महीने तक अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग किए किन्तु किसी भी दिन भगवान् की आँखों में एक बूंद आँसू भी नहीं आया, किन्तु जब वह सङ्गम हताश होकर वापस जाता है तो भगवान की आँखें करुणा से छलक उठती है। बस, भगवान् को यही एक विचार आता है कि यह बेचारा छ:-छ: महीने तक मेरे संसर्ग में रहा फिर भी यह दुर्गति में जाएगा? भगवान् की कैसी करुणा है! विभिन्न प्रकार के उपसर्ग करने पर भी उसके ऊपर कैसा विलक्षण प्रेम....! देह की नहीं, देव की पूजा .... हिंसा करने से मनुष्य दुर्गति में जाता है। मांसाहार करने से, महारम्भ करने से, महापरिग्रह करने से नरक में जाता है। शास्त्र में पन्द्रह कर्मादान का वर्णन आता है जो नरक में ले जाने वाले हैं। कर्मादान किसे कहते हैं? कर्म का आदान/ग्रहण, कर्म बांधने का व्यापार। परिग्रह की इच्छा से ही मनुष्य ऐसे कर्मादानों का आचरण/व्यापार करता है, क्योंकि इच्छा तो आकाश के समान व्यापक है। परिग्रह में कमी न कर सको तो कोई बात नहीं, किन्तु इच्छा का परिमाण तो करो। हमारा शरीर पूर्णतः अशुची से भरा हुआ है। मनुष्य को शौचालय में बैठने की इच्छा होती है क्यौ? चाहे जैसा उत्तम से उत्तम भोजन भी इस शरीर रूपी गटर में जाने के बाद कैसा दुर्गन्ध वाला बन जाता है? अरे! हमारे भोजन करने के तत्काल बाद यदि वमन हो जाए तो क्या हम एक क्षण के लिए भी उसको देखते हैं? नहीं, बल्कि वहाँ से भाग खड़े होते हैं। दुनियां में समस्त मशीनें/ यन्त्र कच्चे माल में से पक्का माल तैयार करती है। जबकि शरीर रूपी एक मात्र यन्त्र ऐसा है जो पक्के माल को कच्चा बनाकर बाहर फेंकता है और उस माल को देखने के लिए आँख डालने की भी हिम्मत नहीं होती।

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