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गुरुवाणी-१
प्रकृति से सौम्य क्योंकि उसके हाथ में धर्म का आभास रहा हुआ है। भगवान् के साथ जब सच्चा सम्बन्ध होता है तब हृदय की ग्रन्थि विभाजित/नष्ट कर दी जाती है। जिस काल में प्रतिक्रमण नहीं था, चातुर्मास नहीं था, कोई पर्व नहीं था, क्षमायाचना की कोई विशिष्ट पर्व क्रिया नहीं थी। तब भी उस काल में अधिक प्रमाण में बहुत से लोग मोक्ष जाते थे। जबकि इस काल में सुबह शाम प्रतिक्रमण है फिर भी कोई मोक्ष में नहीं जाता। बहुत धर्म करने पर भी ऐसे संयोग बनते है कि मनुष्य धर्म अथवा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि मनुष्य ने केवल धर्म की छाया ही पकड़ रखी है। उसने मूल वस्तु को छोड़ दिया है। जिस प्रकार धर्म उत्कृष्ट में उत्कृष्ट मंगल है उसी प्रकार स्वभाव की सौम्यता भी उत्कृष्ट में उत्कृष्ट मंगल है। साधना और शान्ति देने वाला साधु कहलाता है।
सन्त किसे कहें? शान्ति देने वाला सन्त कहलाता है। साधना कराने वाला साधु कहलाता है। हम साधु-सन्त एक साथ उच्चारण करते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि साधना और शान्ति दोनों को देने वाला साधु-सन्त कहलाता है। ऐसे रात-दिन विश्व के कल्याण की कामना करने वालों के भी कई निन्दक होते हैं। एक महात्मा गाँव में होकर जा रहे थे। उस समय चबूतरे पर बैठा हुआ एक मनुष्य बोल उठा - देखो, उठावगिर जा रहा है। देखो, ठगी करने के लिए जा रहा है। देखो न, अपने परिवार की बढ़ोतरी करने के लिए जा रहा है। सन्त महात्मा बहुत संतोषी थे, बहुत शान्त प्रकृति के थे। उन्होने विचार किया- भले ही उसने कहा हो, उसने मुझे मारा तो नहीं? सन्त की कैसी सौम्यता।
इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय को जीतना अधिक दुष्कर है। गुप्तियों में मनो गुप्ति को जीतना अधिक दुष्कर है। वतों में ब्रह्मचर्य व्रत को जीतना अधिक दुष्कर है।